Question – भारतीय लोकतंत्र में ‘शक्तियों के पृथक्करण’ की अवधारणा के महत्व को स्पष्ट कीजिए। भारत द्वारा इस सिद्धांत का सुढ़ृड़ अनुपालन न होने के क्या कारण हो सकते हैं?

Question – भारतीय लोकतंत्र में ‘शक्तियों के पृथक्करण’ की अवधारणा के महत्व को स्पष्ट कीजिए। भारत द्वारा इस सिद्धांत का सुढ़ृड़ अनुपालन न होने के क्या कारण हो सकते हैं? – 6 April 

उत्तर: भारतीय लोकतंत्र में ‘शक्तियों के पृथक्करण’ की अवधारणा 

  • शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का विचार अरस्तू द्वारा व्यक्त किया गया था, किन्तु लॉक और मॉण्टेस्क्यू के लेखन ने इसे एक आधार प्रदान किया। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों के मध्य पृथक्करण करने का आधुनिक प्रयास इसी विचार पर आधारित है।
  • मोंटेस्क्यू, जो कि मानव गरिमा की पुरजोर वकालत करते थे, ने शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का विकास लोगों की स्वतंत्रता बनाए रखने के एक हथियार के रूप में किया। उनका विश्वास था कि यह सिद्धांत एक अंग विशेष की अत्यधिक बढ़ती शक्ति को अवरुद्ध करेगा जो राजनितिक स्वतंत्रता के लिए घातक बनेगी। उसके अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति जिसे कुछ शक्ति सौंपी गयी है, उनका दुरूपयोग करता है। जब कार्यकारी एवं विधायी शक्तियां ऐसे व्यक्ति को दी जाती हैं तो स्वतंत्रता कहां रह जाती है। हालांकि मोंटेस्क्यू प्रथम विद्वान नहीं थे जिन्होंने शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत को विकसित किया। इसका उद्गम,राजनीति विज्ञान के पिता अरस्तु की तरफ जाकर ढूंढा जा सकता

शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत:

  • शक्ति के पृथक्करण से आशय सरकार के कार्यों (विधायी, कार्यकारी और न्यायिक) का विभाजन है।
  • चूँकि किसी भी कानून के निर्माण, उसे लागू करने और प्रशासन के लिये इन तीनों शाखाओं की मंजूरी आवश्यक है, ऐसे में यह व्यवस्था सरकार द्वारा मनमानी या ज़्यादतियों की संभावना को कम करती है।
  • इस व्यवस्था के तहत संवैधानिक सीमांकन के चलते सरकार की किसी भी एक शाखा में शक्ति के एकीकरण को रोका जा सकता है।

नियंत्रण और संतुलन:

  • विधायिका का नियंत्रण:
  1. न्यायपालिका के संदर्भ में: न्यायाधीशों पर महाभियोग और उन्हें हटाने की शक्ति तथा न्यायालय के ‘अधिकार से परे’ या अल्ट्रा वायर्स घोषित कानूनों में संशोधन करने और इसे पुनः मान्य बनाने की शक्ति।
  2. कार्यपालिका के संदर्भ में: विधायिका निर्धारित प्रक्रिया के तहत एक अविश्वास मत पारित कर सरकार को भंग कर सकती है। विधायिका को  प्रश्नकाल और शून्यकाल के माध्यम से कार्यपालिका के कार्यों का आकलन करने की शक्ति प्रदान की गई है। साथ ही विधायिका को राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने का भी अधिकार प्राप्त है।

कार्यपालिका का नियंत्रण:

  1. न्यायपालिका के संदर्भ में मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करना।
  2. विधायिका के संदर्भ में: प्रत्यायोजित कानून के तहत प्राप्त शक्तियाँ। संविधान के प्रावधानों के तहत संबंधित कानूनों के प्रभावी कार्यन्वयन हेतु आवश्यक नियम बनाने का अधिकार।

न्याय पालिका का नियंत्रण:

  1. कार्यपालिका के संदर्भ में: न्यायिक समीक्षा अर्थात् कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा करने की शक्ति, इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कार्यपालिका की कार्रवाई के दौरान संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन न हो।
  2. विधायिका के संदर्भ में: केशवानंद भारती मामले (1973) में उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘संविधान की आधारभूत संरचना’ (Basic Structure of the Constitution) के तहत संविधान संशोधन के अधिकार को सीमित किया गया था।

सुढ़ृड़ अनुपालन न होने के कारण:

  • कमज़ोर विपक्ष: एक लोकतांत्रिक व्यवस्था नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत पर कार्य करती है। यह नियंत्रण और संतुलन व्यवस्था ही है जो एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहुसंख्यकवादी व्यवस्था में बदलने से बचाती है।
  1. एक संसदीय प्रणाली में यह नियंत्रण और संतुलन का कार्य विपक्षी दल द्वारा किया जाता है।
  2. परंतु लोकसभा में एक ही दल को प्राप्त बहुमत ने संसद में एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका को कम कर दिया है।
  • कमज़ोर विधायी समीक्षा: पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के आँकड़ों के अनुसार,  14वीं लोकसभा में 60% और 15वीं लोकसभा में 71% विधेयकों को संबंधित विभागों की स्थायी समितियों (Department-related Standing Committees- DRSCs) के पास भेजा गया था।
  1. हालाँकि 16वीं विधानसभा में DRSCs को भेजे गए विधेयकों का अनुपात घटकर मात्र 27% ही रह गया।
  2. DRSCs को भेजे गए विधेयकों के अलावा सदनों की चयन समितियों या संयुक्त संसदीय समितियों को भेजे गए विधेयकों की संख्या भी बहुत कम ही रही है।
  • न्यायपालिका का हस्तक्षेप: वर्ष 2015 में उच्चतम न्यायालय द्वारा संविधान के 99वें संशोधन को असंवैधानिक एवं शून्य घोषित कर दिया गया था।
  1. गौरतलब है कि यह संशोधन उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर एक नए निकाय “राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग” (National Judicial Appointments Commission-NJAC) की स्थापना करने का प्रावधान करता है।
  2. राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अनुचित राजनीतिकरण से हटकर चयन प्रणाली की स्वतंत्रता की गारंटी प्रदान कर सकता है, जो नियुक्तियों की गुणवत्ता में सुधार के साथ चयन प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने, न्यायपालिका की संरचना में विविधता को बढ़ावा देने तथा चयन प्रणाली के प्रति जनता के विश्वास को मज़बूत करने में सहायक हो सकता है।
  • न्यायिक सक्रियता: हाल में उच्चतम न्यायालय के कई निर्णयों में अतिसक्रियता देखने को मिली और कई मामलों में न्यायालय ने ऐसे निर्णय दिये हैं, जो विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप के समान प्रतीत होते हैं
  • कार्यपालिका का अतिक्रमण: भारत की कार्यपालिका पर सत्ता के अति-केंद्रीकरण, केंद्रीय सूचना आयोग और सूचना का अधिकार (RTI) जैसे सार्वजनिक संस्थानों को कमज़ोर बनाने, राज्य की कानून-व्यवस्था और सुरक्षा को मज़बूत करने परंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिये कानून पारित करने आदि आरोप लगते रहे हैं।

यद्यपि व्यवाहरिक रूप से पूर्ण रूप में शक्ति का विभाजन संभव नहीं है। यहाँ हमें यह समझना होगा कि शक्ति विभाजन सिद्धांत का अर्थ तीनों अंगो का एक दुसरे से सम्बन्ध न रखना इस सिद्धांत की संकीर्ण व्याख्या होगी। अतः शक्ति के विभाजन का सिद्धांत इससे कहीं अधिक व्यापक है। शक्ति विभाजन का आशय यह है कि सरकार के तीन अंगों को एक दूसरे के क्षेत्र में अनुचित हस्तक्षेप से बचते हुए देश में सामाजिक ,राजनैतिक तथा आर्थिक न्याय की स्थापना की ओर कदम बढ़ाना होगा।

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