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भारत में, पंचायती राज प्रणाली की पहचान विकेंद्रीकरण के प्रमुख साधन के रूप में की जाती है, जिसके माध्यम से लोकतंत्र वास्तव में प्रतिनिधिक और उत्तरदायी बनता है।पंचायती राज संस्थानों को स्थानीय स्व-सरकार के रूप में माना जाता है, जो बुनियादी ढांचागत सुविधाएं प्रदान करने, समाज के कमजोर वर्गों को सशक्त बनाने और ग्रामीण भारत के जमीनी स्तर पर विकास प्रक्रिया शुरू करने के लिए है,जहाँ भारत की आत्मा रहती है।
- स्वतंत्रता के पश्चात् पंचायती राज की स्थापना लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की अवधारणा को साकार करने के लिये उठाए गए महत्त्वपूर्ण कदमों में से एक थी। वर्ष 1993 में संविधान के 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता मिली थी। इसका उद्देश्य देश की करीब ढाई लाख पंचायतों को अधिक अधिकार प्रदान कर उन्हें सशक्त बनाना था और यह उम्मीद थी कि ग्राम पंचायतें स्थानीय ज़रुरतों के अनुसार योजनाएँ बनाएंगी और उन्हें लागू करेंगी। किंतु अपने उद्देश्यों की प्रप्ति में ये संस्थायें अपेक्षा अनुसार सफल नहीं हो सकी।
पंचायती राज की सफलता में चुनौतियाँ-
- पंचायतों के पास राजस्व का कोई मज़बूत आधार नहीं है उन्हें वित्त के लिये राज्य सरकारों पर निर्भर रहना पड़ता है। ज्ञातव्य है कि राज्य सरकारों द्वारा उपलब्ध कराया गया वित्त किसी विशेष मद में खर्च करने के लिये ही होता है।
- राज्यों में पंचायतों का निर्वाचन नियत समय पर नहीं हो पाता है।
- पंचायतों में जहाँ महिला प्रमुख हैं वहाँ कार्य उनके किसी पुरुष रिश्तेदार के आदेश पर होता है, महिलाएँ केवल नाममात्र की प्रमुख होती हैं। इससे पंचायतों में महिला आरक्षण का उद्देश्य नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है।
- क्षेत्रीय राजनीतिक संगठन पंचायतों के मामलों में हस्तक्षेप करते हैं जिससे उनके कार्य एवं निर्णय प्रभावित होते हैं।
- इस व्यवस्था में कई बार पंचायतों के निर्वाचित सदस्यों एवं राज्य द्वारा नियुक्त पदाधिकारियों के बीच सामंजस्य बनाना मुश्किल होता है, जिससे पंचायतों का विकास प्रभावित होता है।
पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त करने के उपाय-
- पंचायती राज संस्थाओं को कर संग्रहण के कुछ व्यापक अधिकार दिये जाने चाहिये। पंचायती राज संस्थाएँ स्वयं अपने वित्तीय साधनों में वृद्धि करें। इसके अलावा 14वें वित्त आयोग ने पंचायतों के वित्त आवंटन में बढ़ोतरी की है। इस दिशा में और भी बेहतर कदम बढ़ाए जाने की ज़रुरत है।
- पंचायती राज संस्थाओं को और अधिक कार्यपालिकीय अधिकार दिये जाएँ और बजट आवंटन के साथ ही समय-समय पर विश्वसनीय लेखा परीक्षण भी कराया जाना चाहिये। इस दिशा में सरकार द्वारा ई-ग्राम स्वराज पोर्टल का शुभारंभ एक सराहनीय प्रयास है।
- महिलाओं को मानसिक एवं सामाजिक रूप से अधिक-से-अधिक सशक्त बनाना चाहिये जिससे निर्णय लेने के मामलों में आत्मनिर्भर बन सके।
- पंचायतों का निर्वाचन नियत समय पर राज्य निर्वाचन आयोग के मानदंडों पर क्षेत्रीय संगठनों के हस्तक्षेप के बिना होना चाहिये।
- पंचायतों का उनके प्रदर्शन के आधार पर रैंकिंग का आवंटन करना चाहिये तथा इस रैंकिंग में शीर्ष स्थान पाने वाली पंचायत को पुरुस्कृत करना चाहिये।
पंचायतों को कौन-कौन सी शक्तियां प्राप्त होगी और वे किन जिम्मेदारियों का निर्वहन करेंगी, इसका उल्लेख संविधान में 11वीं अनुसूची में किया गया है। ग्राम पंचायत में 6 समितियों का उल्लेख है- जैसे, नियोजन एवं विकास समिति, निर्माण कार्य समिति, शिक्षा समिति, प्रशासनिक समिति, स्वास्थ्य एवं कल्याण समिति तथा जल प्रबंधन समिति। क्षेत्र पंचायत एवं जिला पंचायत में भी इसी प्रकार की समितियों की व्यवस्था का उल्लेख है। पंचायतीराज व्यवस्था के लागू हो जाने से विकास की अपार संभावनाओं को बल मिला है। गांव के लोगों में जागरूकता बढ़ी है। लोग अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजग हुए हैं। साथ ही लालफीताशाही जिसकी वजह से कार्यों में अड़चन देखने को मिलता था, उस पर विराम लग गया है। पंचायतीराज व्यवस्था ने विकास का विकेंद्रीकरण करके उसका लाभ आम जनता तक पहुंचाने में अहम भूमिका का निर्वहन किया है। आज ग्रामीण जीवन की सकारात्मक प्रगति से साफ है कि जिस उद्देश्य से पंचायतीराज व्यवस्था का ताना-बाना बुना गया था, वह अपने लक्ष्य को आसानी से साध रहा है। प्रत्येक पंचायत एक छोटा गणराज्य होता है, जिसकी शक्ति का स्रोत पंचायतीराज व्यवस्था है। भारतीय लोकतंत्र की सफलता भी इसी गणराज्य में निहित है।