राज्यपाल को हटाने की प्रक्रिया
हाल ही में एक राजनीतिक दल ने तमिलनाडु के राज्यपाल को हटाने का प्रस्ताव पेश किया हैं।
सरकार बनाने के लिये पार्टी का चुनाव, बहुमत साबित करने की समय-सीमा, विधेयकों को लेकर बैठकें और राज्य प्रशासन के बारे में आलोचनात्मक बयान जारी करना हाल के वर्षों में राज्यों तथा राज्यपालों के बीच की कड़वाहट के मुख्य कारण रहे हैं।
इसके कारण, राज्यपाल को केंद्र के एक एजेंट, कठपुतली और रबर स्टैम्प जैसे नकारात्मक शब्दों के साथ संदर्भित किया जाने ने लगा है।
राज्यपाल को नियुक्त करने और हटाने की प्रक्रिया–
- संविधान के अनुच्छेद- 155 और 156 के तहत, राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है।
- यदि पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा होने से पहले राष्ट्रपति,राज्यपाल के पद पर बैठे व्यक्ति को हटाना चाहता है, तो राज्यपाल को पद छोड़ना पड़ता है।
- संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है कि मतभेद होने पर राज्यपाल और राज्य सार्वजनिक रूप से किस तरीके से मतभेद दूर करे।
राज्यपाल से संबंधित अलग–अलग सिफारिशें और निर्णय
- बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि प्रसादपर्यंत सिद्धांत पर कोई सीमा या प्रतिबंध नहीं लगाया गया है, लेकिन पद से हटाने की शक्ति का प्रयोग मनमाने, विवेकहीन या अनुचित तरीके से नहीं किया जा सकता है।
- सरकारिया आयोग, 1988: राज्यपालों को दुर्लभ और अपरिहार्य परिस्थितियों को छोड़कर, उनके पांच साल के कार्यकाल को पूरा करने से पहले बर्खास्त नहीं किया जाना चाहिए। विधानसभा में ही राज्यपाल को हटाने की प्रक्रिया का प्रावधान किया जाना चाहिए।
- वेंकटचलैया आयोग (वर्ष 2002): इसने सिफारिश की कि आमतौर पर राज्यपालों को अपना पाँच साल का कार्यकाल पूरा करने की अनुमति दी जानी चाहिये। यदि उन्हें कार्यकाल पूरा होने से पहले हटाना है तो केंद्र सरकार को मुख्यमंत्री से परामर्श के बाद ही ऐसा करना चाहिये।
- पुंछी आयोग, 2010: वाक्यांश “राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत’ को संविधान से हटा दिया जाना चाहिए। राज्यपाल को केवल राज्य विधानमंडल के एक संकल्प द्वारा ही हटाया जाना चाहिए।
स्रोत – द हिन्दू