भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (POCA), 1988 के तहत लोक सेवक दोषी
- हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लोक सेवकों को रिश्वतखोरी के मामले में परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषी ठहराया जा सकता है।
- सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (POCA), 1988 के तहत लोक सेवक को दोषी ठहराने के लिए रिश्वत की मांग या उसे स्वीकार करने का प्रत्यक्ष सबूत / प्रमाण आवश्यक नहीं है।
- उन्हें परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषी ठहराया जा सकता है।
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आदालतों को POCA की धारा 7 और धारा 13 के तहत लोक सेवक के अपराध का आनुमानिक (inferential) निष्कर्ष निकालने की अनुमति है ।
- धारा 7 लोक सेवक द्वारा कानूनी पारिश्रमिक के अलावा किसी अन्य प्रकार के परितोष (रिश्वत आदि) प्राप्त करने के लिए दंड का प्रावधान करती है ।
- धारा 13 एक लोक सेवक के आपराधिक कदाचार को परिभाषित करती है ।
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988
- भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (Prevention of Corruption Act, 1988)भारतीय संसद द्वारा पारित केंद्रीय कानून है
- इसे सरकारी तंत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में भ्रष्टाचार को कम करने के उद्देश्य से बनाया गया है।
- इसे संशोधन के लिये 2013 में संसद में पेश किया गया था, लेकिन सहमति न बन पाने पर इसे स्थायी समिति और प्रवर समिति के पास भेजा गया। साथ ही समीक्षा के लिये इसे विधि आयोग के पास भी भेजा गया।
- समिति ने 2016 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसके बाद 2017 में इसे दोबारा संसद में लाया गया और POCA में 2018 में संशोधन किया गया था जिससे कि इसे संयुक्त राष्ट्र भ्रष्टाचार – रोधी कन्वेंशन (UNCAC) के अनुरूप बनाया जा सके।
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (POCA) की विशेषताएं
- रिश्वत को ‘अनुचित लाभ माना गया है। इसे कानूनी पारिश्रमिक के अलावा अन्य परितोष के रूप में परिभाषित किया गया है।
- रिश्वत देना अपराध है, सिवाय इसके कि जब किसी को रिश्वत देने के लिए मजबूर किया जाए। हालांकि, इसकी सूचना सात दिनों के अंदर दे देनी होगी।
- रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के मामलों में सुनवाई विशेष न्यायाधीश द्वारा दो साल के भीतर पूरी की जानी चाहिए। देरी होने पर इसके कारणों को रिकॉर्ड किया जाना चाहिए।
- साथ ही मामले के निपटान में लगने वाला कुल समय चार साल से अधिक नहीं होना चाहिए । देरी होने पर इसके कारणों को रिकॉर्ड किया जाना चाहिए।
- साथ ही, मामले के निपटान में लगने वाला कुल समय चार साल से अधिक नहीं होना चाहिए ।
स्रोत – द हिन्दू