IPCC की आकलन रिपोर्ट (Assessment Report) का तीसरा भाग प्रकाशित
हाल ही में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने छठी अपनी आकलन रिपोर्ट (Assessment Report) का तीसरा भाग प्रकाशित किया है ।
यह रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन से निपटने में हुई प्रगति और देशों द्वारा जताई गई प्रतिबद्धता के बारे में अपडेटेड वैश्विक आकलन प्रदान करती है। साथ ही, इसमें वैश्विक उत्सर्जन के स्रोतों की भी जांच की गई है।
इस आकलन रिपोर्ट में पृथ्वी की जलवायु दशाओं पर वैज्ञानिक मूल्यांकन को व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है।
IPCC के बारे में
- IPCC, जलवायु परिवर्तन से संबंधित वैज्ञानिक आकलन के लिए संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था है।
- इसका उद्देश्य सरकार के सभी स्तरों को वैज्ञानिक जानकारी प्रदान करना है, ताकि वे जलवायु संबंधी नीतियों को विकसित करने में इसका उपयोग कर सकें।
- इसका गठन वर्ष 1988 में विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा किया गया था।
इस रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्षों पर एक नजर–
- उत्सर्जन संबंधी रुझान (Emission Trends) : ग्लोबल वार्मिंग को वर्ष 2100 तक 5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए निम्नलिखित की आवश्यकता होगी। विश्व द्वारा उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों (SHGS) की मात्रा के अधिकतम स्तर को वर्ष 2025 तक सीमित करना होगा। साथ ही, इसमें अगले 5 वर्षों (वर्ष 2025-2030) में 43% की कटौती करनी होगी। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन वर्ष 1990 की तुलना में वर्ष 2019 में 54% अधिक था। हालांकि, उत्सर्जन में वृद्धि की दर कम हो रही है।
- कार्बन असमानता (Carbon inequality): कार्बन असमानता हमेशा की तरह बढ़ती जा रही है। वर्ष 2019 में अल्प विकसित देशों (LDCs) का कुल उत्सर्जन, वैश्विक उत्सर्जन का केवल 3% था ।
- कार्बन कैप्चर (Carbon Capture): यदि ग्लोबल वार्मिंग को 5 सेल्सियस तक सीमित रखना है, तो कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (CCS) तकनीक के बिना चलने वाले कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों को वर्ष 2050 तक बंद करना आवश्यक है।
- पेरिस समझौता (Paris Agreement): पेरिस समझौते के तहत की गयी प्रतिबद्धताएँ अपर्याप्त हैं। GHGS उत्सर्जन में वर्ष 2019 की तुलना में वर्ष 2030 तक 43% की कटौती करनी होगी।
- मांग–पक्ष आधारित शमन (Demand-side mitigation): हमारी जीवन शैली और व्यवहार में बदलाव से वर्ष 2050 तक GHGs उत्सर्जन में 40-70% की कमी हो सकती है। इसके लिए उचित नीतियाँ, अवसंरचना और प्रौद्योगिकियाँ आवश्यक हैं।
स्रोत– द हिंदू