Question – “स्वतंत्रता से पहले, सांप्रदायिकता भारत के राष्ट्रीय प्रवचन का एक अभिन्न अंग था”। उपरोक्त कथन के आलोक में भारत में साम्प्रदायिकता के विकास की विवेचना कीजिए। साथ ही वर्तमान और भूतकाल में इसके अंतर को स्पष्ट कीजिए। – 22 March 2022
Answer – आधुनिक भारत के इतिहास में सांप्रदायिकीकरण ने भारतीय जनता के एकीकरण के सम्मुख एक विकट विपदा उत्पन्न कर दी थी। जहाँ एक ओर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का उद्देश्य सभी भारतीयों की एकता थी, वहीं धार्मिक सम्प्रदाय, धार्मिक हितों और धार्मिक राष्ट्र की कृत्रिम सीमांकन के लिए, लोगों में धर्म के आधार पर फूट डालने के लिए ‘सांप्रदायिकता’ प्रयत्नशील रही।
वर्ष 1940 का दशक साम्प्रदायिकता का सबसे संकटकालीन और निर्णायक चरण था। इसी काल में पाकिस्तान की मांग को सामने रखा गया और प्रचारित किया गया।
सांप्रदायिक प्रचार एवं तर्क निम्नलिखित तीन स्तरों पर थेः–
- किसी धार्मिक सम्प्रदाय के सभी सदस्यों के हित समान होते थे। उदाहरण के लिए, यह तर्क कि मुस्लिम जमींदार एवं कृषक के हित समान है, क्योंकि दोनों एक ही सम्प्रदाय के सदस्य हैं। यही तर्क सिख एवं हिन्दू सम्प्रदाय पर भी वैद्य था।
- किसी धार्मिक सम्प्रदाय के सदस्यों के हित, दूसरे सम्प्रदाय के सदस्यों के हितों से भिन्न होते हैं। अर्थात् हिन्दुओं के हित, मुस्लिमों से भिन्न है।
- न केवल हितों में भिन्नता थी अपितु वे विपरीत व टकरावपूर्ण थे। अनतर्विरोधी हितों के कारण हिन्दुओं और मुस्लिमों का सह अस्तित्व सम्भव नहीं था।
यिकता के उदृभव व विकास के कारण–
- सामाजिक एवं आर्थिक कारक- साम्राज्यवाद के उदय के उच्चवर्गीय मुस्लिमों का पतन प्रारम्भ हुआ। उच्च स्थापनों से मुस्लिमों के पृथकीकरण के फलस्वरूप उनकी प्रतिष्ठा में उत्तरोत्तर कमी आयी। हिन्दुओं की अपेक्षा मुस्लिमों में अपनी रूढ़िवादिता में विलम्ब से सुधार किया और पुनर्मूल्यांकन के लिए बौद्धिक जागरण बाद में हुआ। राजाराम मोहन राय व सर सैय्यद अहमद खान के बीच वैचारिक अन्तराल इस तर्क की पुष्टि करते हैं। इस अन्तराल से उपजी असुरक्षा ने मुस्लिमों को परम्परागत विचार प्रक्रिया व धर्म पर आश्रिम कर दिया।
- ब्रिटिश नीति की भूमिका-अंग्रेजों ने साम्प्रदायिकता को जन्म नहीं दिया बल्कि समाज में पहले से व्याप्त सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक मतभेदों को प्रबल कर, ‘‘फूट डालो और राज करो’’ की नीति का अनुसरण मात्र किया। अंग्रेजों के तर्क 1857 के क्रान्ति के उपरान्त यह थे कि, भारतीय समाज आपस में इस प्रकार विभक्त है कि ब्रिटिश शसन के समाप्ति के उपरानत भी भारतीय जनता शासन में अक्षम है। इस प्रकार ब्रिटिश शासन में तुष्टिकरण का मार्ग अपनाया।
- राष्ट्रीय आन्दोलनों की कमजोरियाँ:–
(A) कांग्रेस साम्प्रदायिकता के पूर्णतः समझ पाने में असमर्थ रही और इससे लड़ने के लिए समय रणनीति नहीं बना सकी।
(B) राष्ट्रीय आन्दोलन में कुछ हिन्दू पुनरूत्थानवादी प्रवृत्तियाँ प्रविष्ट हुयी, जिन्होंने कांग्रेस द्वारा मुस्लिमों का विश्वास प्राप्त करने और उन्हें साथ ले चलने के प्रयत्न में बाधा उत्पन्न की।
बीसवीं शताब्दी में साम्प्रदायिकता-
- बंगाल विभाजन एवं मुस्लिम लीग का गठन- प्रशासनिक कदम से भिन्न, बंगाल विभाजन राष्ट्रवाद को क्षीण करने व उसके विरूद्ध मुस्लिमों को मजबूत करने की अंग्रेजों की इच्छा का परिणाम था। उच्च वर्गीय मुस्लिमों द्वारा मुस्लिम लीग का गठन (1906), नवयुवक मुस्लिमों को कांग्रेस से विमुख करने की नीति बन गयी-जैसा कि ब्रिटिश चाहते थे।
- पृथक निर्वाचन मंडल-इसने अलगाववाद में वृद्धि की तथा राष्ट्रवादी गतिविधियों के लिए कांग्रेस के कार्यक्षेत्र को सीमित कर दिया।
- लखनऊ समझौता-पृथक निर्वाचक मण्डल की मांग पर समझौता, नेताओं के मध्य हुआ, जनता अभी भी विभक्त थी। ‘कांग्रेस-लीग’ समझौते को गलत रूप से ‘हिन्दू-मुस्लिम’ समझौता बताया गया।
- वहावी आन्दोलन, शुद्धि आन्दोलन, गणपति उत्सव, शिवा जी उत्सव तथा, गो-वंश हत्या निषेध ने सांप्रदायिकता केा और अधिक प्रबल किया।
साम्प्रदायिकता के सन्दर्भ में मिथक–
- प्रचलित दृष्टिकोण के विपरीत, साम्प्रदायिकता केवल धर्म का राजनीति में प्रवेश मात्र अथवा केवल राजनीति की धार्मिक रूप में व्याख्या मात्र नहीं है। महान स्वतंत्रता सेनानी गांधी जी और मौलाना अबुल कलाम आजाद का अपने धर्म के प्रति अत्यधिक झुकाव था, और वे राजनीति को धार्मिक रूप में व्याख्यायित भी करते थे।
- हिन्दुओं और मुस्लिमों के मध्य धार्मिक मतभेद की पुरानी परम्परा होने के बावजूद थी, आधुनिक काल में पहुंच करर ही मतभेदों ने साम्प्रदायिकता का रूप प्राप्त किया। अर्थात् सांप्रदायिकता धार्मिक समस्या नहीं है।
- साम्प्रदायिकता भारतीय समाज में अनतर्निहित भूतकालीन समस्या नही है। यह उतनी ही नवीन है, जितना कि औपनिवेशिक शासन।
और वर्तमान के साम्प्रदायिकता में अन्तर—
- औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों द्वारा सम्प्रदायवाद को बदल प्रदान करना, स्वयं के साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए था, जबकि वर्तमान में साम्प्रदायिक नेताओं द्वारा अपने निजी स्वार्थों के लिए सांप्रदायिकता का सहारा लिया जाता है।
- वर्तमान समय में मुख्य धारा की मीडिया एवं सोशल मीडिया, खबरों को सनसनीखेज बनाने के प्रयास में नीतिगत आचार की सीमाओं को बांध जाती है।
- प्रशासनिक प्रशिक्षण की कमियों के कारण जैसे अर्न्तप्रशासनिक समन्वय की कमी और अनावश्यक पक्षपातपूर्ण पुलिस व्यवहार, सांप्रदायिकता को बल प्रदान करता है।
- पूर्व से भिन ‘‘वोट बैंक’’ की राजनीति के कारण सांप्रदायिकता को हवा दी जाती है। अर्थात् राजनीतिक सत्तालोलुपता ने भूमण्डलीकृत भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या को और अधिक गम्भीर बना दिया है।
इस प्रकार साम्प्रदायिकता देश की एकता अखण्डता, बंधुत्व आदि जैसे मानवीय व संवैधानिक मूल्यों के लिए प्रमुख बाधक है। अतः साम्प्रदायिकता को निष्प्रभावी करने हेतु सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सुधार वांछनीय है। इसके साथ ही वृहद स्तर पर मानसिक व व्यवहारिक समन्वय की आवश्यकता है।