भारतीय सविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के बजाय, नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत पर आधारित है?

Question – इस कथन पर अपनी राय व्यक्त कीजिए कि, “भारतीय सविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के बजाय, नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत पर आधारित है? 12 February 2022

Answerयह संवैधानिक कानून का एक सिद्धांत है जिसके तहत तीन शाखाएं कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, पृथक और स्वतंत्र शक्तियों और जिम्मेदारी के साथ अलग-अलग अस्तित्व में होती हैं, ताकि एक शाखा की शक्तियां अन्य के साथ संघर्ष में न हों।

दूसरी ओर, नियंत्रण और संतुलन का सिद्धांत उन शक्तियों का वर्णन करता है, जो प्रत्येक शाखा को अन्य शाखाओं को “चेक” करने और शक्ति संतुलन सुनिश्चित करने के लिए होती है। नियंत्रण और संतुलन के साथ तीनों शाखाओं में से प्रत्येक, दूसरों की शक्तियों को सीमित कर सकती है, और इस तरह कोई भी शाखा बहुत शक्तिशाली नहीं हो सकती।

भारतीय संविधान जड़ नहीं है, बल्कि एक जीवंत दस्तावेज है। यह भारतीयों के लिए “सभी धर्मों का धर्म” है। भारतीय सविधान ने तीनों शाखाओं के बीच संबंधों की खोज करते हुए, एक जटिल और नाजुक संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था की है।

नियंत्रण और संतुलन:

विधायिका:

  • न्यायपालिका के संदर्भ में: न्यायाधीशों पर महाभियोग और उन्हें हटाने की शक्ति तथा न्यायालय के ‘अधिकार से परे’ या अल्ट्रा वायर्स घोषित कानूनों में संशोधन करने, और इसे पुनः मान्य बनाने की शक्ति।
  • कार्यपालिका के संबंध में: विधायिका निर्धारित प्रक्रिया का पालन करते हुए अविश्वास मत पारित करके सरकार को भंग कर सकती है। विधायिका को प्रश्नकाल और शून्यकाल के माध्यम से कार्यपालिका के कार्य का मूल्यांकन करने की शक्ति दी गई है। इसके साथ ही विधायिका के पास राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने का भी अधिकार होता है।

कार्यपालिका:

  • न्यायपालिका के संदर्भ में: मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की भूमिका।
  • विधायिका के संबंध में: प्रत्यायोजित कानून के तहत प्राप्त शक्तियां। संविधान के प्रावधानों के तहत प्रासंगिक कानूनों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए आवश्यक नियम बनाने का अधिकार।

न्यायपालिका:

  • कार्यपालिका के संबंध में: न्यायिक समीक्षा का अर्थ है कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा करने की शक्ति, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कार्यकारी कार्रवाई के दौरान संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं किया जाता है।
  • विधायिका के संदर्भ में: केशवानंद भारती मामले (1973) में उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘संविधान की आधारभूत संरचना’ (Basic Structure of the Constitution) के तहत संविधान संशोधन के अधिकार को सीमित किया गया था।

आगे की राह:

  • एक व्यापक ‘विधायी प्रभाव आकलन’ प्रणाली को लागू करना अनिवार्य है, जिसके तहत सभी विधायी प्रस्तावों का मूल्यांकन उनके सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और प्रशासनिक प्रभावों के आधार पर किया जा सकता है। विधायी योजना की देखरेख और समन्वय के लिए संसद की एक नई विधायी समिति का गठन किया जाना चाहिए। यह समिति कार्यपालिका के अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने के ऐसे मामलों की जांच कर सकती है, जहां कार्यपालिका की कार्रवाई से नागरिकों की स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचता है।
  • विपक्ष की भूमिका को मजबूत करने के लिए भारत में शैडो कैबिनेट या ‘शैडो कैबिनेट’ के गठन पर विचार किया जा सकता है।

उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि अन्योन्याश्रयता का कारण हमारे देश में अपनाई जाने वाली संसदीय शासन प्रणाली को माना जाता है। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में सत्ता के पृथक्करण के सिद्धांत का बिल्कुल भी पालन नहीं किया जाता है। ‘शक्ति के पृथक्करण’ का सिद्धांत संयम का एक सिद्धांत है जिसमें आत्म-संरक्षण के विवेक में यह उपदेश है, कि विवेक वीरता का बेहतर हिस्सा है।

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