भारत के सकल मूल्य वर्द्धित (GVA) में सूक्ष्म वित्त का योगदान बढ़ने की संभावना
हाल ही में नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (NCAER) के एक अध्ययन के अनुसार, भारत के सकल मूल्य वर्द्धित (Gross Value Added: GVA) में सूक्ष्म वित्त का योगदान बढ़ने की संभावना है ।
NCAER के एक अध्ययन के अनुसार, सूक्ष्म वित्त (माइक्रोफाइनेंस) क्षेत्र ने वर्ष 2018-19 में भारत के GVA में लगभग 2% और पूरे वित्तीय क्षेत्र में लगभग 5.5% का योगदान दिया है।
GVA, अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को मापने की एक पद्धति है।
माइक्रोफाइनेंस से तात्पर्य कम आय वाले व्यक्तियों या समूहों को प्रदान की जाने वाली वित्तीय सेवाओं से है। ये लोग या समूह आमतौर पर पारंपरिक बैंकिंग सेवाओं से वंचित होते हैं।
मालेगाम समिति (2011) ने माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र को एक लेजिटमेट एसेट क्लास (कानूनी परिसंपत्ति वर्ग) के रूप में स्थापित करने में मदद की थी।
भारत में माइक्रोफाइनेंस का डिलीवरी मॉडलः
- सेल्फ-हेल्प ग्रुप्स (SHGs) बैंक लिंकेज प्रोग्राम (SBLP): भारत में माइक्रोफाइनेंस आंदोलन के इतिहास को SHG-बैंक लिंकेज प्रोग्राम में खोजा जा सकता है। इसे वर्ष 1992 में नाबार्ड द्वारा एक पायलट परियोजना के रूप में शुरू किया गया था।
- माइक्रो-फाइनेंस इंस्टीट्यूशन (MFIs) जैसे कि गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (NBFCs), कोऑपरेटिव्स आदि को भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा विनियमित किया जाता है।
- बैंक भागीदारी मॉडल
- बैंकिंग कॉरेस्पॉन्डेंट
माइक्रोफाइनेंस का महत्वः
- इसके चलते महिलाओं को सीधे ऋण देकर महिला सशक्तीकरण को प्रोत्साहित किया गया है।
- इससे परिवार, समुदाय और समाज में बड़े पैमाने पर महिलाओं के दर्जे में वृद्धि हुई है।
- यह गरीब और कम आय वाले परिवारों को गरीबी से बाहर आने, उनकी आय के स्तर को बढ़ाने और समग्र जीवन स्तर में सुधार करने में सक्षम बनाने के लिए वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देता है।
- गरीबों को बिना किसी जमानत (कोलैटरल) के ऋण उपलब्ध कराया जाता है।
- यह रोजगार सृजन में भी मदद करता है।
माइक्रोफाइनेंस की चुनौतियां:
- कर्जदारों पर बहुत अधिक ऋण बकाया है।
- ब्याज दर तुलनात्मक रूप से काफी अधिक होती है।
- माइक्रोफाइनेंस से जुड़े संस्थान अपने फण्ड के लिए वाणिज्यिक बैंकों पर अत्यधिक निर्भर हैं।
स्रोत –द हिन्दू