आवश्यक धार्मिक प्रथा परीक्षण (ERPT) पर चर्चा शुरू
हाल ही में, कर्नाटक में कुछ प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेजों ने ‘हिजाब’ या सिर पर स्कार्फ पहनने वाली मुस्लिम छात्राओं को कॉलेज में प्रवेश देने से मना कर दिया था। इसके कारण धार्मिक विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। इसी संदर्भ में धार्मिक मामलों के लिए आवश्यक धार्मिक प्रथा परीक्षण (Essential Religious Practice test: ERPT) पर चर्चा शुरू हो गई है।
(ERPT) आवश्यक धार्मिक प्रथा परीक्षण सिद्धांत, उच्चतम न्यायालय (SC) ने “शिरूर मठ” मामले (1954) में प्रस्तुत किया था। न्यायालय के अनुसार, यह सिद्धांत केवल ऐसी धार्मिक प्रथाओं की रक्षा पर केंद्रित है, जो धर्म के लिए आवश्यक और अभिन्न है।
न्यायालय ने कहा कि “धर्म” शब्द एक धर्म के लिए अभिन्न सभी अनुष्ठानों और प्रथाओं को शामिल करता है। साथ ही, ‘धर्म’ ही अपनी आवश्यक और गैर-आवश्यक प्रथाओं को निर्धारित करने के लिए जिम्मेदार है।
न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों के दौरान आवश्यक और गैर-आवश्यक प्रथाओं को अलग करने का प्रयास किया है।
वर्ष 1983 में, उच्चतम न्यायालय ने “तांडव” को आनंद मार्गी संप्रदाय के लिए एक आवश्यक धार्मिक प्रथा के रूप में स्वीकार नहीं किया था। सबरीमाला मामले (वर्ष 2018) में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि, 10 से 50 वर्ष की आयु की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना धर्म का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं है।
ERPT की आलोचना
- इस सिद्धांत द्वारा न्यायालय ने एक ऐसे क्षेत्र में जाने का प्रयास किया है, जो उसकी अधिकारिता से परे है। यह सिद्धांत न्यायाधीशों को विशुद्ध रूप से धार्मिक प्रश्नों पर निर्णय देने की शक्ति देता है।
- धर्म की स्वतंत्रता के अंतर्गत एक व्यक्ति को धार्मिक मान्यताओं का पालन करने की स्वायत्तता प्रदान की गई है। आवश्यक परीक्षण व्यक्ति की उस स्वायत्तता का अतिक्रमण करता है।
स्रोत –द हिन्दू