ASI द्वारा नालंदा में दो 1200 साल पुराने लघु स्तूपों की खोज
हाल ही में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने नालंदा में 1200 साल पुराने दो दानात्मक (वर्तानुष्ठित) (Votive) लघु स्तूपों की खोज की है।
- बिहार में नालंदा महाविहार के परिसर के भीतर सराय टीला नामक टीले के निकट दानात्मक लघु स्तूपों की प्राप्ति हुई है। इन लघु स्तूपों को मन्नत पूरी होने पर बनवाया जाता था ।
- स्तूप शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ “ढेर” होता है। यह टीले की तरह (अर्द्धगोलीय) की समाधि संरचना है। इसमें बौद्ध भिक्षुओं के अवशेष रखे होते हैं।
- उदाहरण के लिए – सांची स्तूप बुद्ध के अवशेषों पर निर्मित है।
स्तूप की स्थापत्य कला से संबंधित विशेषताएं:
- इसमें गुंबद के आकार जैसा एक अर्द्ध गोलाकार टीला या अंड होता है ।
- इसमें एक वर्गाकार रेलिंग या हर्मिका बनी होती है ।
- केंद्रीय स्तंभ तीन छतरी (छत्र) जैसी संरचना को आधार प्रदान करता है। यह संरचना बौद्ध धर्म के त्रिरत्नों का प्रतिनिधित्व करती है ।
- यह चारदीवारी से घिरा होता है और चारों दिशाओं में अलंकृत प्रवेश द्वार (तोरण) बने होते हैं। आनुष्ठानिक परिक्रमा के लिए अंड के चारों ओर एक गोलाकार चबूतरा (मेढ़ी) बना होता है।
नालंदा महाविहार के बारे में
- यह यूनेस्को का विश्व धरोहर स्थल है। इसमें तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर 13वीं शताब्दी तक के एक मठ और शैक्षिक संस्थान के पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं ।
- नालंदा में गौतम बुद्ध और महावीर, दोनों ने कुछ समय के लिए निवास किया थे ।
- नागार्जुन, धर्मपाल, दिङ्नाग, जिनमित्र, शान्तरक्षित जैसे विद्वान नालंदा महाविहार से संबंधित थे।
- ह्वेनसांग और इत्सिंग जैसे बौद्ध विदेशी यात्री भी इस स्थान पर आए थे।
- नालंदा महाविहार गुप्त राजवंश, कन्नौज के हर्ष और पाल राजवंश के संरक्षण में काफी समृद्ध हुआ था।
- इसमें स्तूप, चैत्य और विहार (आवासीय एवं शैक्षिक भवन) शामिल हैं तथा स्टुको प्लास्टर, पाषाण और धातु कला की महत्वपूर्ण विशेषताएं मौजूद हैं।
स्रोत – टाइम्स ऑफ़ इंडिया