“स्वास्थ्य के अधिकार” के अधिकार की अनदेखी

‘स्वास्थ्य के अधिकार’ के अधिकार की अनदेखी

हाल ही में सर्वोच्च न्यायलय ने ‘स्वास्थ्य के अधिकार’ को अनदेखा करने संबंधी याचिका पर केंद्र से जवाब की माँगा है ।

विदित हो की कुछ समय पूर्व सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में कहा गया था, कि ‘स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार’ को अनदेखा किया जा रहा है, क्योंकि मरीजों को, बीमारी के समय, खासतौर पर कोविड-19 महामारी के दौरान, अत्यधिक महंगी निजी चिकित्सा सुविधाओं या “अपर्याप्त” सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में से चयन करने के लिए मजबूर किया गया है ।

याचिका कर्ताओं की मांग:

याचिका में ,चिकित्सीय​​ संस्थान (पंजीकरण एवं विनियमन) अधिनियम, 2010 (Clinical Establishments (Registration and Regulation) Act- CEA, 2010) और चिकित्सीय ​​संस्थान (केंद्र सरकार) नियमावली, 2012 (Clinical Establishment (Central Government) Rules of 2012) एवं ‘पेशेंट्स राइट्स चार्टर’ को सही तरीके से लागू करने की मांग की जा रही है।

कोविड-19 महामारी के समय “स्वास्थ्य के अधिकार” की किस प्रकार अनदेखी की गई?

  • भारत सरकार ने ‘चिकित्सीय संस्थानों में मानकों के विनियमन’ को राष्ट्रीय नीति के लक्ष्य के रूप में लागू किया था, लेकिन यह चिंता का विषय है कि इन मानकों को अभी तक पूरे देश में प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जा सका है। यदि देखा जाए तो यह व्यक्ति के ‘गरिमामय जीवन के अधिकार’ (Right to a dignified life) का हनन है।
  • भारत के संविधान में अनुच्छेद 21, 41 और 47 और विभिन्न ‘अंतरराष्ट्रीय अनुबंधों’ के अंतर्गत, न्यूनतम स्वास्थ्य- देखभाल प्रदान सुनिश्चित करने का उपबंध किया गया है।
  • लेकिन अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण आम नागरिकों के लिए यह अधिकार उपलब्ध ही नहीं हैं।
  • वर्तमान स्थिति यह है, कि 70 प्रतिशत से अधिक स्वास्थ्य देखभाल निजी क्षेत्र द्वारा प्रदान की जाती है और 30 प्रतिशत से भी कम रोगी सार्वजनिक क्षेत्र में अपना इलाज कराते हैं।

आवश्यकता:

  • कोविड-19 के इलाज के लिए निजी अस्पतालों द्वारा आसमान को छूने वाली फीस वसूल किए जाने की खबरे अक्सर आती रहती हैं।
  • ऐसे में , मरीजों के लिए जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर ‘शिकायत निवारण तंत्र’ उपलब्ध कराया जाना चाहिए, जो विभिन्न स्तरों पर मरीजों की शिकायतों की जांच-पड़ताल करे।
  • इसमें अस्पतालों और क्लीनिकों द्वारा मरीजों को उनके अधिकारों से वंचित करना एवं ‘चिकित्सीय​​ संस्थान अधिनियम और नियमों’ के तहत दी जाने वाली न्यूनतम चिकत्सीय देखभाल और सुविधाएं प्रदान करने में विफलता को सम्मिलित किया जाए।

‘स्वास्थ्य के अधिकार’ का आधार:

  • संविधान के ‘अनुच्छेद 21’ में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की गारंटी प्रदान की गई है, और ‘स्वास्थ्य का अधिकार’, ‘गरिमामय जीवन के अधिकार’ में अंतर्निहित है।

राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (DPSP):

  • संविधान के अनुच्छेद 38, 39, 42, 43, और 47 के तहत , ‘स्वास्थ्य के अधिकार’ को प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने का दायित्व राज्य को सौंपा गया है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल खेत मजदूर समिति मामले (1996) में कहा है, कि कल्याणकारी राज्य में, सरकार का प्राथमिक दायित्व लोगों के कल्याण को सुरक्षित करना है और इसके साथ ही अपने नागरिकों के लिए पर्याप्त चिकित्सीय सुविधाएं प्रदान करना सरकार का दायित्व है।
  • भारत, संयुक्त राष्ट्र के ‘मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा’ (1948) पर एक हस्ताक्षरकर्ता देश भी है।
  • इस घोषणा के तहत, सभी मनुष्यों को भोजन, कपड़े, आवास और चिकित्सा देखभाल और आवश्यक सामाजिक सेवाओं सहित स्वास्थ्य एवं कल्याण हेतु एक जीवन स्तर का अधिकार प्रदान किया गया है।

स्रोत – द हिन्दू

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