निवारक निरोध (Preventive detention) व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर गंभीर हमला
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि निवारक निरोध (Preventive detention) व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर गंभीर हमला है।
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि “निवारक निरोध व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर गंभीर हमला है”।
- ऐसे में संविधान में और इस तरह की कार्रवाई को अधिकृत करने वाले कानून में जो कुछ भी रक्षोपाय संबंधी प्रावधान किए गए हैं, उनका सख्ती से पालन किया जाना चाहिए।
- इस संदर्भ में शीर्ष न्यायालय की पीठ ने ‘अशोक कुमार बनाम दिल्ली प्रशासन’ मामले में वर्ष 1982 के उच्चतम न्यायालय के निर्णय का हवाला दिया है। इस मामले में कहा गया था कि निवारक निरोध का प्रावधान समाज को सुरक्षा प्रदान करने के लिए किया गया है।
- इस कानून का उद्देश्य किसी व्यक्ति को उसके किए गए कृत्य के लिए दंडित करना नहीं है, बल्कि उसे किसी कृत्य को करने से पहले उसे अवरुद्ध करना और ऐसा करने से उसे रोक देना है।
- राम मनोहर लोहिया बनाम बिहार राज्य मामले में शीर्ष न्यायालय ने रेखांकित किया था कि केवल सबसे गंभीर कृत्यों के लिए ही निवारक निरोध को उचित ठहराया जा सकता है।
- निवारक निरोध का अर्थ किसी ऐसे व्यक्ति को हिरासत में लेना है, जिसने अभी तक कोई अपराध नहीं किया है, लेकिन अधिकारियों को लगता है कि वह कानून और व्यवस्था के समक्ष खतरा उत्पन्न कर सकता है।
- भारत का संविधान अनुच्छेद 22(1) और 22(2) के तहत गिरफ्तारी तथा हिरासत से सुरक्षा प्रदान करता है।
- यह सुरक्षा निवारक निरोध कानूनों के तहत गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए व्यक्ति के लिए उपलब्ध नहीं है (अनुच्छेद 22(3))
निम्नलिखित कुछ कानून हैं जिनमें निवारक निरोध के प्रावधान किये गए हैं–
- दंड प्रक्रिया संहिता,
- नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट 1985,
- गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम आदि।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की ‘भारत में अपराध रिपोर्ट 2021’ के अनुसार, भारत में वर्ष 2021 में 1.1 लाख से अधिक लोगों को निवारक निरोध के तहत रखा गया था। यह संख्या वर्ष 2017 के बाद सबसे अधिक है।
स्रोत – द हिन्दू