“वियतनाम की तरह अमेरिका अब अफगानिस्तान से भी वापसी के लिए बेताब है, लेकिन ऐसी दशा में अफगानिस्तान का भविष्य ज्यादा उज्ज्वल दिखाई नहीं देता है।” स्पष्ट करें।
उत्तर
वियतनाम की तरह अफगानिस्तान में भी अमेरिका को समझ में आ गया है कि वे ऐसे संघर्ष में फंसे हैं, जिसे वे जीत नहीं सकते। इसलिए किसी तरह का ज़िम्मेदारी पूर्ण समझौता किया जाए और स्वयं को दो दशक से चल रहे संघर्ष से पृथक किया जाए।
अफगानिस्तान में चल रहे संघर्ष में अमेरिका को निर्णायक जीत के बजाय किसी समझौते के लिए धकेलने वाले कारक निम्न है-
- अफगानिस्तान में स्थित अमेरिका को सहयोग करने वाले लोगों का विभाजित होना और दिनोंदिन कम होना।
- अफगानिस्तान में चल रहे संघर्ष को अमेरिकी जनमानस द्वारा पसंद नहीं किया जाना।
- अमेरिका द्वारा समर्थित सरकार का जनता में प्रभाव कम होना, सरकार का अक्षम और भ्रष्टाचारी होना।
- सुरक्षाबलों का जनता की बुनियादी सुरक्षा सुनिश्चित करने में नाकाम होना।
- सैनिकों की कटौती की प्रक्रिया पहले ही शुरू की जा चुकी है।
ऐसे में तालिबान के साथ किसी भी प्रकार का समझौता करके अमेरिका अफगानिस्तान से बाहर हो जाता है तो अफगानिस्तान का भविष्य ज्यादा उज्ज्वल नहीं दिखाई देता है क्योंकि-
- तालिबान ने वर्तमान सरकार को मान्यता नहीं दी है, ऐसे में वर्तमान सरकार के साथ सकारात्मक सहयोग करने की उम्मीद नहीं कर सकते।
- तालिबान का पूर्व शासन सांप्रदायिक हिंसा, आधुनिकता विरोधी तथा महिला विरोधी नीतियों के कारण कुख्यात रहा ।
- अगर वियतनाम का उदाहरण देखें तो अमेरिका के बाहर निकलते ही कम्युनिस्टों ने पूरे वियतनाम पर युद्ध विराम के बावजूद कब्जा कर लिया था, जबकि तालिबान के साथ तो युद्ध विराम समझौता हुआ भी नहीं है।
निष्कर्ष :
अफगानिस्तान में तालिबान खुद एक समस्या है, वह समाधान का हिस्सा कैसे हो सकता है। अमेरिका की वापसी को वह खुद की जीत के तौर पर लेगा। इसलिए अफगानिस्तान में चल रहे संघर्ष में अमेरिका ही नहीं बल्कि पूरे वैश्विक समुदाय को जिम्मेदारी भरा रुख अपनाना चाहिए।
स्रोत – पीआईबी