लोकुर समिति द्वारा अनुसूचित जनजातियों के लिए निर्धारित मानदंड

लोकुर समिति द्वारा अनुसूचित जनजातियों के लिए निर्धारित मानदंड

हाल ही में अनुसूचित जनजातियों के लिए प्रक्रिया के अनुसार, ST (scheduling tribes: ST) सूची में किसी भी समुदाय को शामिल करने के लिए भारत के रजिस्ट्रार जनरल (RGI) के कार्यालय की स्वीकृति अनिवार्य है।

लोकुर समिति द्वारा निर्धारित मानदंड

किसी भी नए समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में परिभाषित करने के लिए RGI का कार्यालय लगभग 60 साल पहले लोकुर समिति द्वारा निर्धारित मानदंडों के सेट का पालन कर रहा है।

जनजाति के रूप में एक समुदाय को परिभाषित करने के लिए लोकुर समिति द्वारा निर्धारित मानदंड हैं:

  • आदिम लक्षणों के संकेत, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, व्यापक समुदाय के साथ संपर्क में संकोच और पिछड़ापन ।

जनजातियों के निर्धारण पर सरकारी टास्क फोर्स

  • फरवरी 2014 में जनजातीय मामलों के तत्कालीन सचिव ऋषिकेश पांडा के नेतृत्व में गठित जनजातियों के निर्धारण पर सरकारी टास्क फोर्स ने निष्कर्ष निकाला था कि ये मानदंड “बदलाव और संस्कृतिकरण (transition and acculturation) की प्रक्रिया को देखते हुए अप्रासंगिक हो सकते हैं।
  • इसके अलावा, यह भी नोट किया गया कि आदिम और अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल होने के लिए आदिम विशेषता होना वास्तव में बाहरी लोगों द्वारा स्वयं को श्रेष्ट ठहराने की अवधारणा लगती है। समिति ने यह नोट किया कि जिसे हम आदिम मानते हैं, वह स्वयं आदिवासियों द्वारा ऐसा नहीं माना जाता है।
  • इसने भौगोलिक अलगाव वाले मानदंड के साथ भी समस्याओं की ओर भी इशारा किया, यह तर्क देते हुए कि देश भर में इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास जारी है, ऐसे में भला कोई समुदाय अलगाव में कैसे रह सकता है?
  • टास्क फोर्स ने मई में मानदंडों में बदलाव की सिफारिश की और इसके आधार पर, जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने जून 2014 में ST के रूप में नए समुदायों के निर्धारण के लिए मानदंड और प्रक्रिया में बदलाव के लिए एक मसौदा कैबिनेट नोट तैयार किया।
  • यह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पहली कैबिनेट के शपथ लेने के एक महीने के भीतर किया गया था।

भारत में अनुसूचित जनजातियों से संबंधित प्रावधान

  • भारत का संविधान अनुसूचित जनजातियों की मान्यता के मानदंडों को परिभाषित नहीं करता है। वर्ष 1931 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों को “बहिष्कृत” और “आंशिक रूप से बहिष्कृत” क्षेत्रों में रहने वाली “पिछड़ी जनजातियों” के रूप में मान्यता जाना जाता है।
  • भारत सरकार अधिनियम 1935 ने पहली बार प्रांतीय विधानसभाओं में “पिछड़ी जनजातियों” के प्रतिनिधियों को शामिल किये जाने की मांग की।

संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 366 (25): इसमें अनुसूचित जनजातियों को “ऐसी आदिवासी जाति या आदिवासी समुदाय या इन आदिवासी जातियों और आदिवासी समुदायों के भाग या उनके समूह के रूप में, जिन्हें इस संविधान के उद्देश्यों के लिये अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजातियाँ माना गया है” परिभाषित किया है।
  • अनुच्छेद 342(1): राष्ट्रपति किसी राज्य/संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में (राज्य के मामले में राज्यपाल के परामर्श के बाद) उस राज्य/संघ राज्य क्षेत्र में जनजातियों/जनजातीय समुदायों/जनजातियों/जनजातीय समुदायों के कुछ भागों या समूहों को अनुसूचित जनजाति के रूप में विनिर्दिष्ट कर सकता है।
  • पाँचवीं अनुसूची: यह 6वीं अनुसूची में शामिल राज्यों के अलावा अन्य राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजाति के प्रशासन एवं नियंत्रण हेतु प्रावधान निर्धारित करती है।
  • छठी अनुसूची: असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित है।

स्रोत – द हिन्दू

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