राजद्रोह कानून पर पुनर्विचार का मामला
केंद्र सरकार के अनुसार राजद्रोह कानून पर पुनर्विचार के लिए बड़ी पीठ गठित करने की कोई आवश्यकता नहीं है । केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष स्पष्ट किया है कि, राजद्रोह कानून पर वर्ष 1962 का निर्णय सही है। इसलिए, इस पर पुनर्विचार के लिए बड़ी पीठ गठित करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
राजद्रोह कानून पर हाल ही में केंद्र सरकार ने अपना स्पष्टीकरण दायर किया है। इसमें केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ द्वारा सही ठहराए जाने के आधार पर राजद्रोह पर दंडात्मक कानून का बचाव किया है।
भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A में राजद्रोह को परिभाषित किया गया है। इस धारा के अनुसार राजद्रोह वह अपराध है, जब कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्यात्मक संकेतों के माध्यम से घृणा या अवमानना फैलाता है या फैलाने का प्रयास करता है, अथवा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा करता है या पैदा करने का प्रयास करता है।
यह एक गैर-जमानती अपराध है।
वर्ष 1962 में, केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में, उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था।
हालांकि, इस कानून के प्रयोग के लिए शर्त भी निर्धारित की थी जो निम्नलिखित है:
- जब तक उकसाने या हिंसा करने का आह्वान न किया गया हो, सरकार की आलोचना को राजद्रोह का अपराध नहीं माना जा सकता।
- इसे अक्सर राजनीतिक असंतोष को दबाने के लिए एक साधन के रूप में इस्तेमाल कर इसका दुरुपयोग किया जाता है।
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट 2020 के अनुसार, वर्ष 2018 और 2020 में इस धारा के तहत क्रमशः 70 एवं 73 मामले दर्ज किये गए थे। लेकिन, किसी को भी इस अपराध का दोषी नहीं ठहराया जा सका था। वर्ष 2018 में, विधि आयोग ने निम्नलिखित शर्तों के साथ इस कानून को बरकरार रखने का सुझाव दिया था ।
- ‘राजद्रोह’ शब्द की जांच की जानी चाहिए। साथ ही, यह भी देखना चाहिए कि इसे किसी अन्य उपयुक्त शब्द से प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
- राजद्रोह के रूप में नाराजगी प्रकट करने के अधिकार’ की संभाव्यता की जांच की जानी चाहिए।
- राजद्रोह कानून के दुरुपयोग के खिलाफ सुरक्षा उपाय निर्धारित किये जाने चाहिए।
स्रोत –द हिन्दू