भारत में मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की प्रमुख विशेषता, भारत में क्षेत्रीय भाषाओं का विकास

प्रश्नभारत में मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की प्रमुख विशेषताओं को इंगित करते हुए, भारत में क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में इसकी भूमिका पर टिप्पणी कीजिए।

उत्तरभारत में भक्ति आंदोलन सबसे पहले मध्यकाल में दक्षिण के अलवर और नयनार संतों द्वारा शुरू किया गया था। भक्ति आंदोलन मनुष्य और ईश्वर के आध्यात्मिक मिलन पर जोर देता है। भजनों और कहानियों के माध्यम से भक्ति का उपदेश पारंपरिक रूप से तमिल भक्ति संप्रदाय के अलवर और नयनार संतों द्वारा और उत्तरी भारत में दो भक्ति धाराओं अर्थात् निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति द्वारा किया जाता था।

यह आंदोलन दक्षिण भारत से उत्तर भारत में रामानंद द्वारा बारहवीं शताब्दी की शुरुआत में लाया गया था। इस आंदोलन को चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम, जयदेव ने प्रसस्थ किया। भक्ति आंदोलन का मुख्य उद्देश्य हिंदू धर्म और समाज में सुधार करना और इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच सद्भाव स्थापित करना था। आंदोलन अपने उद्देश्यों में काफी सीमा तक सफल भी रहा।

भक्ति आंदोलन की मुख्य विशेषताओं में निम्नलिखित हैं: 

  • दर्शन: भक्ति आंदोलन सभी मनुष्यों के बीच एक ईश्वर और बंधुत्व की अवधारणा में विश्वास करता था। भक्ति ऋषियों द्वारा धर्म को ईश्वर और उपासकों के बीच एक प्रेमपूर्ण बंधन के रूप में देखा गया था।
  • प्रचार का माध्यम: भक्ति संतों ने ईश्वर से जुड़ने के लिए कविता, गीत-नृत्य और कीर्तन जैसे विभिन्न माध्यमों को अपनाया। उन्होंने ईश्वर के प्रति एकतरफा, उत्कट भक्ति के साथ-साथ एक सर्वोच्च व्यक्ति में विश्वास पर जोर दिया।
  • गुरु की भूमिका: भक्ति संतों ने भक्त को भगवान के साथ अपने मिलन की दिशा में मार्गदर्शन करने के लिए एक गुरु की आवश्यकता की वकालत की।
  • महिलाओं की भागीदारी: कुछ प्रमुख महिलाओं में अंडाल, मीराबाई, लालद्याद आदि शामिल हैं। इनके द्वारा कई भक्ति छंदों की रचना की गयी।
  • समानता पर जोर: जाति, पंथ या धर्म के आधार पर कोई भेद नहीं था। साथ ही, भक्ति आंदोलनों ने समाज की रूढ़िवादी व्यवस्था की आलोचना की। सती प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या आदि सामाजिक मुद्दों का विरोध किया गया। इसके अलावा, कई भक्ति संतों ने संस्थागत धर्मों और धार्मिक रीति-रिवाजों का विरोध किया।
  • हिंदू और इस्लामी परंपराओं के बीच की खाई को पाटना: कबीर और गुरु नानक जैसे भक्ति संतों ने हिंदू और इस्लामी दोनों परंपराओं से अपने विचार निकाले और हिंदू-मुस्लिम एकता का पुरजोर समर्थन किया।

भक्ति आंदोलन और क्षेत्रीय भाषाएं:

  • भारत में भक्ति आंदोलन ने देश के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय भाषा साथ-साथ स्थानीय साहित्य के विकास को बढ़ावा दिया।
  • भक्ति युग के संतों ने अपनी-अपनी स्थानीय भाषाओं में उपदेश दिया और जनता से जुड़े। उन्होंने अपनी स्थानीय भाषाओं में भी साहित्य की रचना की, जैसे हिंदी में कबीर, गुरुमुखी में गुरु नानक देव, गुजराती में नरसिंह मेहता आदि।
  • अलवर ऋषियों ने तमिल भाषा में ‘दिव्य प्रबंध’ नामक श्लोकों का एक संग्रह बनाया, जिसे ‘पांचवां वेद’ माना जाता है।
  • भक्ति कालीन संतों द्वारा अनेक संस्कृत कृतियों का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद किया गया। इसके अतिरिक्त, पूर्व में केवल संस्कृत में उपलब्ध ग्रंथ इस काल में जन-सामान्य के लिए भी सुलभ हो गए। उदाहरण के लिए, तुलसीदास ने रामायण महाकाव्य की अवधी भाषा में रचना कर इसे जन-सामान्य के लिए अधिक सुलभ बनाया।
  • भक्ति-काल के संत चैतन्य और शंकरदेव ने अपने अनुयायियों को संस्कृत के स्थान पर क्रमशः बंगाली और असमिया भाषा का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया। भक्ति संतों के प्रयासों ने मराठी, मैथिली, कन्नड़, अवधी आदि क्षेत्रीय भाषाओं को समृद्ध किया।

भक्ति आंदोलन का महत्त्व-

  • भक्ति आंदोलन के संतों ने लोगों के सामने एक कर्मकांड मुक्त जीवन का लक्ष्य रखा जिसमें ब्राह्मणों द्वारा लोगों के शोषण के लिए कोई जगह नहीं थी।
  • भारत में भक्ति आंदोलन के कई संतों ने हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया, जिससे इन समुदायों में सहिष्णुता और सद्भाव की स्थापना हुई।
  • भक्ति युग के संतों ने क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने हिंदी, पंजाबी, तेलुगु, कन्नड़, बांग्ला आदि भाषाओं में रचना की।
  • भक्ति आंदोलन के प्रभाव से जाति-बंधन की जटिलता कुछ हद तक समाप्त हो गई। परिणामस्वरूप, दलित और निम्न वर्ग के लोगों में भी स्वाभिमान की भावना पैदा हुई।
  • भक्ति आंदोलन ने बिना कर्मकांड के समतामूलक समाज की स्थापना का आधार तैयार किया।

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