प्रश्न -“मजबूत जांच प्रक्रियाओं का अभाव उच्चतम विधायी संस्थानों के रूप में संसद की छवि को कमजोर करता है और इसकी शक्तियों पर न्यायिक अतिक्रमण को प्रोत्साहित करता है।” ऐसी ही समस्याओं के समाधान के लिए बनी संसदीय स्थायी समितियों की अनदेखी के क्या परिणाम होंगे ? – 17 August 2021
उत्तर –
- संसद की प्राथमिक भूमिका विचार-विमर्श, चर्चा और किसी भी लोकतांत्रिक संस्था की पहचान पर पुनर्विचार है। हालाँकि संसद उन मामलों पर विचार-विमर्श करती है जो जटिल हैं और इसलिये ऐसे मामलों को बेहतर तरीके से समझने के लिये तकनीकी विशेषज्ञता की आवश्यकता है। इस प्रकार संसदीय समितियाँ एक मंच प्रदान करके इसकी सहायता करती हैं जहाँ सदस्य अपने अध्ययन के दौरान डोमेन विशेषज्ञों और सरकारी अधिकारियों के साथ संलग्न हो सकते हैं। संसदीय लोकतंत्र की बेहतरी के लिये उन्हें दरकिनार करने के बजाय संसदीय समितियों को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
- आधुनिक युग में संसद को न केवल विभिन्न और जटिल प्रकार का, बल्कि मात्रा में भी अत्यधिक कार्य करना पड़ता है। संसद के पास इस कार्य को निपटाने के लिए सीमित समय होता है। इसलिए संसद उन सभी विधायी तथा अन्य मामलों पर, जो उसके समक्ष आते हैं, गहराई के साथ विचार नहीं कर सकती। अत: संसद का बहुत सा काम सभा की समितियों द्वारा निपटाया जाता है, जिन्हें संसदीय समितियां कहते हैं। संसदीय समिति से तात्पर्य उस समिति से है, जो सभा द्वारा नियुक्त या निर्वाचित की जाती है अथवा अध्यक्ष द्वारा नाम-निर्देशित की जाती है और अध्यक्ष के निदेशानुसार कार्य करती है तथा अपना प्रतिवेदन सभा को या अध्यक्ष को प्रस्तुत करती है और समिति का सचिवालय लोक सभा सचिवालय द्वारा उपलब्घ कराया जाता है।
- संसदीय स्थायी समितियां प्रकृति में स्थायी होती हैं, और इन्हें सदन द्वारा नियुक्त या निर्वाचित किया जाता है या लोकसभा के अध्यक्ष और राज्य सभा के सभापति द्वारा नामित किया जाता है। वे अपनी रिपोर्ट (अपनी रिपोर्ट) सदनों के समक्ष पेश करते हैं। जिसके फलस्वरूप संसद की विभिन्न गतिविधियों से संबंधित कार्यों में सहायता मिलती है। कुछ स्थायी समितियाँ हैं – लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति, सरकारी उपक्रमों की समिति, विभागीय रूप से संबंधित स्थायी समितियाँ आदि।
- इन समितियों के महत्व के बावजूद, 16वीं लोकसभा में पेश किए गए विधेयकों में से केवल 25% ही समितियों को संदर्भित किए गए थे, जबकि 71% और 60% विधेयक क्रमशः 15वीं और 14वीं लोकसभा में उनके पास भेजे गए थे। 17वीं लोकसभा के पहले सत्र में 14 विधेयकों को पारित किया गया और किसी भी विधेयक की संसदीय समिति द्वारा जांच/विश्लेषित नहीं किया गया। आरटीआई संशोधन विधेयक-2019, यूएपीए विधेयक-2019 आदि जैसे महत्वपूर्ण विधेयक स्थायी समितियों द्वारा बिना जांच और आलोचनात्मक विश्लेषण के पारित किए गए।
संसदीय समितियों द्वारा संवीक्षा के बिना विधेयकों को पारित कराने के कारण पड़ने वाला प्रभाव:
- यह संसद की सरकारी नीतियों की संवीक्षा करने की क्षमता को प्रतिबंधित करता है और सुविचारित चर्चा के अभाव मेंसरकार को अपेक्षाकृत कम जबाबदेह बनाता है।
- स्थायी समितियों की जांच के बिना पारित विधेयकों में सत्यनिष्ठा और दूरदर्शिता की कमी हो सकती है। इस तरह के अधिनियमों को बार-बार संशोधित करने की आवश्यकता हो सकती है, जिससे प्रक्रिया में अनावश्यक देरी हो सकती है और इस तरह मूल उद्देश्य विफल हो सकता है।
- यह विपक्ष की भूमिका को कमजोर करता है (जिसके सदस्य संसदीय समितियों का हिस्सा हैं)।
- यह विधायिका की जांच से बचने के लिए अन्य तरीकों, जैसे गिलोटिन, बार-बार अध्यादेशों की घोषणा आदि के उपयोग को प्रोत्साहित करता है।
- यह संबंधित हितधारकों के साथ जुड़ाव को कम करता है, क्योंकि समितियां एक ओर संसद और लोगों के बीच एक जोड़ने वाली कड़ी के रूप में कार्य करती हैं, और दूसरी ओर प्रशासन और संसद।
- यह वित्तीय विवेक में बाधा डालता है। समितियां सार्वजनिक व्यय में मितव्ययिता और दक्षता सुनिश्चित करती हैं, क्योंकि मंत्रालयों/विभागों द्वारा अपनी मांगों को तैयार करते समय अधिक ध्यान दिया जाता है।
यह स्थिति गलत दृष्टान्त स्थापित करती है क्योंकि यह कार्यपालिका पर विधायिका के नियंत्रण के संवैधानिक अधिदेश के विरुद्ध है। अतः सभी विधेयकों को समितियों को संदर्भित करने, इसके सदस्यों के कार्यकाल की अवधि में अपेक्षाकृत वृद्धि करने और पर्याप्त अनुसंधान सहायता के साथ समितियों को सुदृढ़ बनाने हेतु राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग, 2002 (National Commission to Review the Working of the Constitution, 2002) की अनुशंसाओं का अंगीकरण एक अनिवार्यता है।