भारत में  भूदान आंदोलन के महत्व

Question – भारत में  भूदान आंदोलन के महत्व को विधि-निर्माण तथा सामाजिक आंदोलन के रूप में चित्रांकित कीजिए।20 November 2021

उत्तर –

स्वतंत्रता के पश्चात् कृषि जोतों में असमानता से उत्पन्न आर्थिक विषमता के कारण कृषकों की दशा अत्यंत दयनीय हो गई। भूमिहीन कृषकों की दशा सुधारने हेतु विनोबा भावे ने 1951 में भूदान तथा ग्रामदान आंदोलनों की शुरुआत वर्तमान तेलंगाना के पोचमपल्ली गाँव से की, जिससे भूमिहीन निर्धन किसान समाज की मुख्य धारा से जुड़कर गरिमामय जीवनयापन कर सकें। ऐसा सर्वप्रथम 1951 में प्रथम संविधान संशोधन एवं उसके परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों में बनने वाले भूमि वितरण व चकबंदी (सीलिंग) कानूनों के माध्यम से किया गया। इसके अतिरिक्त, 1951 में आचार्य विनोबा भावे द्वारा तेलंगाना में भूदान-आन्दोलन नाम का एक सामाजिक आंदोलन आरंभ किया गया।

आंदोलन गांधीवादी दर्शन पर आधारित था, और प्रकृति में अहिंसक था। इसका उद्देश्य अमीर जमींदारों को स्वेच्छा से अपनी जमीन का एक छोटा हिस्सा भूमिहीनों को देने के लिए तैयार करना था।

भूदान-आन्दोलन का महत्व:

  • इस आंदोलन के माध्यम से 20 वर्षों की अवधि में देश भर में कुल 40 लाख एकड़ भूमि वितरित की गई।
  • इसने भूमि के पुनर्वितरण को प्रोत्साहित किया, जिससे खेतिहर मजदूरों को भूमि का मालिक बनने की अनुमति मिली। फलस्वरूप कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई।
  • लोगों के मन में यह केंद्रीय विचार आया कि भूमि पृथ्वी की देन है और यह सभी का अधिकार है।
  • इसने सर्वोदय समाज को प्रोत्साहित किया। सर्वोदय समाज, भारत के सामाजिक ढाँचे को मूल्यों के क्रांतिकारी परिवर्तन के माध्यम से रूपांतरित करने का एक अहिंसक एवं रचनात्मक कार्यक्रम था।
  • समय बीतने के साथ, इसने ग्रामदान आंदोलन को शामिल करने के लिए अपने दायरे का विस्तार किया, जहां गांधीजी के ट्रस्टीशिप के विचार पर जोर दिया गया था।

विनोबा भावे गांधीवादी थे, इसलिए उन्होंने विभिन्न राज्यों में पदयात्राएं कीं और जमींदारों और जमींदारों से गरीब किसानों के बीच अतिरिक्त जमीन बांटने का आग्रह किया। भूदान आंदोलन में पांच करोड़ एकड़ जमीन दान में देने का लक्ष्य रखा गया था।

कुछ ज़मींदारों ने, जो कई गाँवों के मालिक थे, पूरे गाँव को भूमिहीनों को देने की पेशकश की, जिसे ग्रामदान कहा जाता था। इन गाँवों में भूमि पर लोगों का सामूहिक स्वामित्व स्वीकार किया गया। इसकी शुरुआत ओडिशा से हुई थी। जहां एक ओर यह आंदोलन काफी हद तक सफल रहा, वहीं दूसरी ओर कुछ जमींदारों ने भूमि के सीमांकन से बचने के लिए इसका गलत फायदा उठाया।

भूदान आंदोलन से सम्बद्ध चुनौतियां:

  • अक्सर दानदाताओं ने अपनी बेकार और बंजर जमीन सिर्फ नाम के लिए दान कर दी। इससे उसका मूल उद्देश्य ही विफल हो जाता है।
  • इसने लोकतान्त्रिक मूल्यों को आत्मसात करने के स्थान पर स्वामी-सेवक सम्बन्धों के पुराने मूल्यों को ही सुदृढ़ किया।
  • भूदान का लक्ष्य केवल भूमिहीन ग्रामीणों की सहायता करना था। इसके तहत अर्द्ध-भूमिहीनों अथवा उन ग्रामीणों को सम्मिलित नहीं किया गया, जिनके पास छोटा भूमि क्षेत्र था और वे फिर भी जुताई मजदूरों के तौर पर कार्य करते थे।
  • बाद में आंदोलन में धीमी प्रगति, रिश्वतखोरी, नकली भूमि का दान आदि जैसी विभिन्न समस्याएं देखी गईं।

आरंभ में यह आंदोलन काफी लोकप्रिय हुआ किंतु 1960 के बाद यह कमज़ोर पड़ गया क्योंकि आंदोलन की रचनात्मक क्षमताओं का इस्तेमाल सही दिशा में नहीं किया गया। दान में मिली 45 एकड़ भूमि में से बहुत कम ही भूमिहीन किसानों के काम आ सकी, क्योंकि अधिक बंजर भूमि ही दान में प्राप्त हुई थी। इसके अलावा लोगों ने ऐसी भूमि भी दान कर दी जो कानूनी मुकदमें में फँसी हुई थी।

जहाँ एक ओर इन आंदोलनों ने भूमि वितरण कर असमानता को दूर करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर, जिन क्षेत्रों के लोगों की आकांक्षाएँ पूरी न हो सकी वहाँ नक्सलवाद जैसे आंदोलनों की नींव पड़ गई जिससे वर्ग संघर्ष तथा हिंसा में वृद्धि हुई। हालांकि कुछ अभिलेखों के अनुसार दान की गयी 23 लाख एकड़ भूमि का अभी तक वितरण नहीं हो पाया है। कृषि संकट का समाधान करने के लिए इनको शीघ्र वितरित किया जाना चाहिए।

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