भारत में नवीकरणीय ऊर्जा विस्तार
भारत को नवीकरणीय ऊर्जा विस्तार के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भूमि का विवेकपूर्ण उपयोग करने की आवश्यकता है ।
इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (IEEFA) की एक रिपोर्ट ने इस तथ्य का परीक्षण किया है कि देश को वर्ष 2050 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन की स्थिति प्राप्त करने के लिए कितनी भूमि की आवश्यकता हो सकती है।
प्रमुख निष्कर्ष
- वर्ष 2050 में शुद्ध शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने के लिए भूमि उपयोग अनुमान, सौर ऊर्जा के लिए 50,000-75,000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र और पवन ऊर्जा के लिए यह 15,000-20,000 वर्ग कि.मी. (कुल परियोजना क्षेत्र) या 1,500-2,000 वर्ग कि.मी. (प्रत्यक्ष प्रभाव) है।
- अर्थात् सौर ऊर्जा के लिए जितनी भूमि की आवश्यकता है, वह भारत के कुल भूभाग के 7-2.5 प्रतिशत या गैर-वन भूमि के 2.2-3.3 प्रतिशत के समतुल्य है।
- इसके साथ ही भूमि का आकार, उसकी अवस्थिति तथा मानव अधिवास, कृषि और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर इसके प्रभाव का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
प्रमुख सुझाव
- अपतटीय पवन, रूफटॉप सोलर और जल निकायों पर सौर (अधिकतर कृत्रिम) को प्रोत्साहन प्रदान करके (जहां विशुद्ध पर्यावरणीय लाभ सुनिश्चित किया जा सकता है) नवीकरणीय ऊर्जा के लिए कुल भूमि उपयोग आवश्यकताओं को कम किया जाना चाहिए।
- संभावित स्थलों की रेटिंग के लिए सुस्पष्ट पर्यावरणीय और सामाजिक मानदंड विकसित करके, अवांछित क्षेत्रीय संकेन्द्रण को सीमित करके तथा व्यापक रूप से वितरित नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन का समर्थन करके, नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन हेतु भूमि की पहचान एवं आंकलन को अनुकूलित करना चाहिए।
- भारतीय एग्रीवोल्टिक्स (कृषि भूमि पर खेती के साथ-साथ सौर ऊर्जा उत्पादन) पर अधिक बल दिया जाना चाहिए, जिससे किसानों को लाभ मिल सके तथा अन्य प्रकार की भूमि पर दबाव को कम किया जा सके।
स्रोत – द हिन्दू