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प्रश्न – भारत के न्यायालयों को लंबे समय से लंबित मामलों से भरा हुआ माना जाता है, लेकिन समस्या की बनावट कुछ ऐसी है जिसे हम अब तक बहुत कम जानते हैं।ऐसे परिदृश्य के लिए संभावित कारण क्या है? इस समस्या को हल करने के लिए विभिन्न उपायों की एक रूपरेखा का सुझाव दीजिए। – 4 May
उत्तर –
प्रसिद्ध दार्शनिक जान राल्स ने अपनी कृति ‘A Theory of Justice’ में यह माना है कि ‘न्याय सामाजिक संस्थाओं का प्रथम एवं प्रधान सद्गुण है अर्थात सभी सामाजिक संस्थाएँ न्याय के आधार पर ही अपनी औचित्यपूर्णता को सिद्ध कर सकती हैं।’ भारत में भी न्यायिक व्यवस्था का अपना अलग महत्त्व है। यदि भारतीय न्यायिक व्यवस्था का छिद्रान्वेषण करें तो हम पाते हैं कि न्यायाधीशों की कमी, न्याय व्यवस्था की खामियाँ और लचर बुनियादी ढाँचा जैसे कई कारणों से न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है तो वहीँ दूसरी ओर न्यायाधीशों व न्यायिक कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है। न्याय में देरी अन्याय कहलाती है लेकिन देश की न्यायिक व्यवस्था को यह विडंबना तेज़ी से घेरती जा रही है। देश के न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों को आँकड़ा लगभग 3.5 करोड़ पहुँच गया है।
समस्याओं का कारण
- देशभर के न्यायालयों में न्यायिक अवसंरचना का अभाव है। न्यायालय परिसरों में मूलभूत सुविधाओं की कमी है।
- भारतीय न्यायिक व्यवस्था में किसी वाद के सुलझाने की कोई नियत अवधि तय नहीं की गई है, जबकि अमेरिका में यह तीन वर्ष निर्धारित है।
- केंद्र एवं राज्य सरकारों के मामले न्यायालयों में सबसे ज्यादा है। यह आँकड़ा 70% के लगभग है। सामान्य और गंभीर मामलों की भी सीमाएँ तय होनी चाहिये।
- न्यायालयों में लंबे अवकाश की प्रथा है, जो मामलों के लंबित होने का एक प्रमुख कारण है।
- न्यायिक मामलों के संदर्भ में अधिवक्ताओं द्वारा किये जाने वाला विलंब एक चिंतनीय विषय है, जिसके कारण मामलें लंबे समय तक अटके रहते हैं।
- न्यायिक व्यवस्था में तकनीकी का अभाव है।
- न्यायालयों तथा संबंधित विभागों में संचार की कमी व समन्वय का अभाव है, जिससे मामलों में अनावश्यक विलंब होता है।
लंबित न्यायिक कार्य को कम करने का उपाय:
- जिन मामलों में अपराधी दो वर्ष से अधिक समय से हिरासत में हों, ऐसे पुराने मामलों को निपटाने के लिए न्यायिक अधिकारियों हेतु वार्षिक लक्ष्य और कार्य योजनाओं को निर्धारित किया जाना चाहिए।
- न्याय निर्णयन की गुणवत्ता से समझौता कर वादों का जल्दबाजी में निपटान किए जाने जैसे कदाचार पर अंकुश लगाने के लिए न्यायिक अधिकारियों के प्रदर्शन की त्रैमासिक समीक्षा अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए।
- रिक्त पदों को शीघ्रतापूर्वक भरा जाना, न्यायालय की अवसंरचना सुधार एवं न्यायिक भर्ती परीक्षाओं के मानकों की स्थापना इत्यादि जिला न्यायाधीशों की गुणवत्ता में सुधार के लिए अन्य उपाय हैं।
- न्यायाधीशों के चयन में अनुभव की जाने वाली अनियमितताओं पर विचार किए जाने की आवश्यकता है; इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तुत की गई राष्ट्रीय जिला न्यायाधीश भर्ती परीक्षा पर अनिवार्य रूप से गंभीर चिंतन किया जाना चाहिए।
- वृद्धि संबंधी उपाय जैसे कि कार्यस्थगनों को प्रतिबंधित करना, ग्रीष्म अवकाशों पर अंकुश लगाना, और रियल टाइम निगरानी के साथ न्यायालयी कार्यवाही की दृश्य-श्रव्य रिकॉर्डिंग परिवर्तनकारी प्रभाव उत्पन्न करेगी।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समितियों जैसे न्यायमूर्ति एम. जगन्नाथ राव समिति द्वारा प्रदत्त अनुशंसाओं की जाँचपड़ताल करके केस फ्लो मैनेजमेंट (Case Flow Management:CFM) नियमों को समाविष्ट किया जा सकता है।
- फास्ट ट्रैक न्यायालयों के साथ-साथ, विवाचन arbitration), मध्यस्थता, सुलह जैसे वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्रों को प्रोत्साहित करना।
- यातायात से संबंधित वादों को सामान्य न्यायालयों से पृथक करना।
- अधीनस्थ न्यायाधीशों की गुणवत्ता में, भर्ती के स्तर पर और साथ ही कार्य पर प्रशिक्षण के दौरान सुधार करना।
उपर्युक्त सभी बातों को देखते हुए स्पष्ट है कि भारतीय न्याय तंत्र में विभिन्न स्तरों पर सुधार की दरकार है। यह सुधार न सिर्फ न्यायपलिका के बाहर से बल्कि न्यायपालिका के भीतर भी होने चाहिये। ताकि किसी भी प्रकार के नवाचार को लागू करने में न्यायपालिका की स्वायत्तता बाधा न बन सकें। न्यायिक व्यवस्था में न्याय देने में विलंब न्याय के सिद्धांत से विमुखता है, अतः न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिये बल्कि दिखना भी चाहिये।