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प्रश्न – न्यायिक अवमानना से क्या आशय है? आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं कि न्यायिक अवमानना अधिनियम, संविधान द्वारा प्रदत्त वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता है। तर्क सहित अपने उत्तर की पुष्टि कीजिये। – 15 June 2021
उत्तर –
अदालती कानून की अवमानना भारतीय कानूनी संदर्भ में सबसे विवादास्पद तत्वों में से एक है। हालांकि, अवमानना कानून की मूल अवधारणा उन लोगों को दंडित करना है जो अदालत के आदेशों का अपमान या अवज्ञा करते हैं। भारतीय संदर्भ में, अवमानना कानून का उपयोग उन लोगों को दंडित करने के लिए किया जाता है जो अदालत की गरिमा को भंग करते हैं, और न्यायिक प्रशासन में बाधा डालते हैं।
न्यायिक अवमानना की अवधारणा
- ‘अदालत की अवमानना’ की अवधारणा इंग्लैंड में कई सदियों से मौजूद है। इंग्लैंड में इसे राजा की ‘न्यायिक शक्तियों’ की रक्षा करने के उद्देश्य से एक सामान्य कानूनी सिद्धांतों के रूप में मान्यता प्राप्त है।
- प्रारंभ में राजा स्वयं अपनी न्यायिक शक्तियों का प्रयोग करता था, लेकिन बाद में इन शक्तियों का प्रयोग ‘न्यायाधीशों के पैनल’ द्वारा किया जाता था जो राजा के नाम पर कार्य करते थे। न्यायाधीशों के आदेशों का उल्लंघन स्वयं राजा के अपमान के रूप में देखा जाता था।
- समय के साथ, न्यायाधीशों की किसी भी तरह की अवज्ञा, या उनके निर्देशों के कार्यान्वयन में बाधा डालना, या कोई भी टिप्पणी या कार्य करना जो उनके प्रति अनादर दिखाता है, दंडनीय बन गया।
- भारत में स्वतंत्रता से पूर्व भी न्यायालय की अवमानना के नियम विद्यमान थे। प्रारंभिक उच्च न्यायालयों के अलावा, कुछ रियासतों की अदालतों में ऐसे कानून मौजूद थे।
न्यायिक अवमानना के लिये दंड का प्रावधान:
- सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को न्यायालय की अवमानना के लिये दंडित करने की शक्ति प्राप्त है। यह दंड छह महीने का साधारण कारावास या 2000 रूपए तक का जुर्माना या दोंनों एक साथ हो सकता है।
- वर्ष 1991 में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि, उसे न केवल खुद की बल्कि सम्पूर्ण देश में किसी भी उच्च न्यायालय, अधीनस्थ न्यायालयों और न्यायाधिकरणों की अवमानना के मामलों में भी दंडित करने की शक्ति है।
- न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 10 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों को अधीनस्थ न्यायालयों की अवमानना के लिए दंड देने का विशेष अधिकार दिया गया है।
न्यायिक अवमानना से संबंधित चिंताएँ:
- संविधान का अनुच्छेद 19 भारत के प्रत्येक नागरिक को वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है, लेकिन न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 द्वारा न्यायालय के कामकाज के खिलाफ बोलना प्रतिबंधित है।
- यह कानून बहुत व्यक्तिपरक है, इसलिए अवमानना की सजा का इस्तेमाल अदालत खुद की आलोचना करने वाले की आवाज को दबाने के लिए कर सकती है।
- अवमानना अधिनियम न्यायपालिका के लिए हितों के टकराव की स्थिति पैदा करता है, क्योंकि न्यायाधीश स्वयं पीड़ित होते हैं और वे स्वयं न्यायपालिका की भूमिका का निर्वहन करते हैं।
- अवमानना अधिनियम लोकतांत्रिक लोकाचार के खिलाफ है, क्योंकि एक स्वस्थ लोकतंत्र में रचनात्मक आलोचना सर्वोपरि है, जबकि कानून न्यायपालिका की आलोचना को प्रतिबंधित करता है।
- न्यायिक अवमानना अधिनियम में व्यक्ति की रक्षापायों के संबंध में प्रावधान का अभाव है, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है।
एक उपाय के रूप में, अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्राथमिक माना जाना चाहिए, और अदालत की अवमानना की शक्ति को इसके अधीन किया जाना चाहिए। न्यायपालिका को दो परस्पर विरोधी सिद्धांतों, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निष्पक्ष निर्णय को संतुलित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। विधायिका के लिए अवमानना कानून में संशोधन के लिए कदम उठाना और अवमानना अधिनियम और इसके लागू होने की सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना आवश्यक है।