प्रकृति को उसके विधिक दर्जे के साथ-साथ उसे एक जीवित प्राणी का भी दर्जा
हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय ने प्रकृति को उसके विधिक दर्जे के साथ-साथ उसे एक जीवित प्राणी का भी दर्जा दिया है।
मद्रास उच्च न्यायालय ने पैरेंस पैट्रियाइ (राष्ट्र के अभिभावक) क्षेत्राधिकार का उपयोग करते हुए प्रकृति को “कानूनी इकाई” (legal entity) का दर्जा दिया है। साथ ही, न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को इसकी रक्षा करने का भी निर्देश दिया है।
इससे पहले, वर्ष 2017 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना नदियों को मनुष्य के समान कानूनी दर्जा दिया था। हालांकि, बाद में उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय को खारिज कर दिया था।
इसके अलावा, वर्ष 2018 में, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने ‘पक्षी और जलीय जीवों सहित पूरे जंतु जगत को कानूनी इकाई के रूप में घोषित किया था।
इस निर्णय का महत्व-
- न्यायालय ने निर्णय दिया है कि एक जीवित व्यक्ति के समान ही प्रकृति के भी अधिकार, कर्तव्य और दायित्व हैं।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि प्राकृतिक पर्यावरण ‘जीवन के अधिकार’ के मूल मानवाधिकारों का भाग है।
- यह पर्यावरण कानून का विस्तार करता है। साथ ही, यह प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग में दृष्टिकोण और व्यवहार में परिवर्तन पर बल देता है।
निर्णय से जुड़े मुद्दे –
- अस्पष्ट परिभाषाः “प्रकृति” क्या होती है, इसकी उचित परिभाषा का अभाव है।
- लोको पेरेंटिसः कानूनी न्यायालय में, प्रकृति का प्रतिनिधित्व करने के लिए लोको पेरेंटिस की आवश्यकता होगी। इस प्रकार इसके वित्तपोषण और इसे लागू करने में कानून संबंधी मुद्दा उभर सकता है। (लोको पेरेंटिस- वास्तविक अभिभावक की अनुपस्थिति में स्थितिजन्य अभिभावक)
- अधिकारों में संघर्षः यह निर्णय मनुष्यों को दिए गए अन्य अधिकारों जैसे जल के अधिकार और जमीन के अधिकार के साथ हित संघर्ष की स्थिति पैदा कर सकता है।
लैटिन में पैरेंस पैट्रियाइ (Parens patriae) का अर्थ है “राष्ट्र के अभिभावक” । यह अवधारणा राज्य को उन संस्थाओं के अधिकारों का संरक्षक/अभिभावक बनने की अनुमति देती है, जो अपने अधिकारों के लिए लड़ने में असमर्थ हैं।
स्रोत –द हिन्दू