प्रश्न – भारत के मामले में, शक्तियों के पृथक्करण ने संवैधानिक व्यवस्था के भीतर एक अनूठी विशेषता हासिल कर ली है। व्याख्या कीजिए। – 25 December 2021
उत्तर – भारत के संविधान ने त्रिपक्षीय सरकार की कल्पना की थी, जिसमें, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका शामिल हैं, ये भले ही शक्तियों में अलग-अलग हैं, लेकिन जाँच और संतुलन की एक प्रणाली द्वारा संचालित हैं। इन तीनों संस्थानों की स्वतंत्रता पवित्र है, और संविधान में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत द्वारा संरक्षित है। तीनों ही अपने अलग-अलग शासनादेशों का निर्वहन कर रहे हैं। इनमें न्यायपालिका की स्थिति कार्यकारी और विधायी कार्रवाई की समीक्षा करने और सत्ता के दुरुपयोग को रोकने का काम करती है। जब व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आंच आने लगती है, तब लोगों को प्रदत्त संवैधानिक कवच की रक्षा के लिए एक स्वायत्तता न्यायपालिका की आवश्यकता होती है।
सामान्यतः, राज्य के अंगों के मध्य शक्तियों के पृथक्करण के संबंध में दो सामान्य मॉडल प्रचलित हैं। पहला, मोंटेस्क्यू द्वारा प्रतिपादित शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत है। दूसरा वेस्टमिन्स्टर मॉडल है जो संसद की सर्वोच्चता के सिद्धांत पर आधारित लचीले शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का प्रावधान करता है। हालाँकि, भारतीय संविधान ने शक्ति पृथक्करण के एक अद्वितीय रूप का प्रावधान किया है। इस प्रकार यह शक्ति पृथक्करण का तीसरा मॉडल प्रस्तुत करता है।
भारत में, शक्ति पृथक्करण के लिए संविधान में निम्नलिखित प्रावधान किये गए हैं:
- अनुच्छेद 50 में उल्लिखित है कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करने हेतु राज्य, न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिए कदम उठाएगा।
- अनुच्छेद 122 और 212 के अनुसार, क्रमशः संसद और राज्य विधान सभाओं की कार्यवाहियों की विधिमान्यता को किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता। इस प्रकार सदस्यों की न्यायिक हस्तक्षेप से उन्मुक्ति सुनिश्चित की गई है।
- अनुच्छेद 121 तथा 211 के अनुसार, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के न्यायिक आचरण पर क्रमशः संसद तथा राज्य विधानमंडल में चर्चा नहीं की जा सकती।
- अनुच्छेद 361 के अनुसार, राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के लिए किसी भी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं।
यहां संविधान द्वारा राज्य के तीन अंगों को मान्यता दी गई है, लेकिन इन अंगों के बीच विभिन्न प्रकार की शक्तियों का स्पष्ट रूप से विभाजन नहीं किया गया है। यह एक कार्यात्मक ओवरलैप है, जो निम्नलिखित के माध्यम से परिलक्षित होता है:
- भारत की संसदीय प्रणाली के अंतर्गत राजनीतिक कार्यपालिका भी विधायिका का अंग होती है।
- विधायिका द्वारा अपनी न्यायिक शक्तियों का उपयोग इसके विशेषाधिकारों के उल्लंघन, राष्ट्रपति पर महाभियोग और न्यायधीशों को पद से हटाने के मामलों में किया जाता है।
- कार्यपालिका कानून बनाने की अपनी विधायी शक्तियों का उपयोग प्रत्यायोजित विधान तथा अध्यादेश पारित करने के माध्यम से करती है।
- न्यायाधिकरण और अन्य अर्ध-न्यायिक निकाय जो कार्यपालिका के भाग हैं, उनके द्वारा न्यायिक कार्यों का निर्वहन किया जाता है और उनके अधिकांश सदस्य न्यायपालिका से होते हैं।
- न्यायाधीशों की संख्या निर्धारित करने तथा साथ ही उन्हें नियुक्त करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है।
- न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के अंतर्गत न्यायपालिका, कार्यपालिका को संवैधानिक और सांविधिक उपायों के रूप में निर्देश दे सकती है।
इस प्रकार, किसी एक अंग द्वारा शक्तियों के मनमाने उपयोग को रोकने के लिए भारतीय प्रणाली में नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था भी मौजूद है। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने कई न्यायिक निर्णयों में शक्तियों के पृथक्करण के महत्व को दोहराया है। केशवानंद भारती केस (1973) में कहा गया है कि शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत हमारे संविधान की मूल संरचना का एक अभिन्न अंग है। इस संबंध में, सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक (2014) को असंवैधानिक और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरा मानते हुए निरस्त कर दिया था।
शासन के एक अंग द्वारा दूसरे के कार्यों में बार-बार हस्तक्षेप करने से उसकी अखंडता, गुणवत्ता और दक्षता पर लोगों का विश्वास कम होने लगता है। साथ ही इससे लोकतंत्र की भावना का अवमूल्यन होता है, क्योंकि शासन के किसी एक अंग में शक्तियों का बहुत अधिक संचय ‘नियंत्रण और संतुलन’ के सिद्धांत को कमज़ोर करता है।