प्रश्न – क्या भारत को अपने परमाणु नीति को संशोधित करना चाहिए? टिप्पणी करें ।

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प्रश्न – क्या भारत को अपने परमाणु नीति को संशोधित करना चाहिए? टिप्पणी करें । – 24 July 2021

उत्तर

  • भारत में परमाणु नीति को ले कर एक बेहद दिलचस्प बहस चल रही है। कई कारणों से इसकी जरूरत भी काफी बढ़ गई है। देश में दक्षिणपंथी झुकाव वाली ऐसी सरकार है जो भारत की विदेश और रक्षा नीति में नाटकीय परिवर्तन करने से झिझकने वाली नहीं। साथ ही भारत के रणनीतिक चिंतक रणनीतिक परमाणु हथियारों पर पाकिस्तान की निर्भरता को ले कर चिंता जता रहे हैं और उस पर से पाकिस्तान और चीन का गठजोड़ मजबूत होता जा रहा है। इन कारणों से भारत के विकल्पों में तो कमी आई ही है हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सत्ता संतुलन में भी बदलाव आया है।
  • पहले उपयोग नहीं करने (NFU) की नीति भारत की परमाणु नीति का आधार रहा है और भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने अब तक इसमें बदलाव का कोई प्रस्ताव भी नहीं किया है। लेकिन इसने अपने 2014 के चुनाव घोषणापत्र में वादा किया था कि यह “भारत की परमाणु नीति का विस्तार से अध्ययन कर इसे संशोधित करेगी और इसे मौजूदा समय में हो रहे बदलावों के अनुकूल करगी।” उधर, अभी कुछ हफ्तों पहले तक देश के रक्षा मंत्री रहे मनोहर पर्रिकर ने भारत की परमाणु हथियारों के पहले उपयोग नहीं करने की नीति पर सवाल उठाए थे। उन्होंने कहा था, “बड़ी संख्या में लोग यह क्यों कहते हैं कि भारत की नीति है कि वह पहले इसका इस्तेमाल नहीं करेगा… मुझे कहना चाहिए कि मैं एक जवाबदेह परमाणु शक्ति हूं और मैं इसका गैर-जवाबदेही से उपयोग नहीं करूंगा, और एक व्यक्ति के तौर पर, कई बार मुझे लगता है कि मैं यह क्यों कहूं कि मैं इसका पहले इस्तेमाल नहीं करने वाला हूं। मैं यह नहीं कह रहा कि आपको सिर्फ इसलिए इसका पहले उपयोग करना है क्योंकि आपने यह फैसला नहीं किया है कि आपको पहले इसका उपयोग नहीं करना है। इससे धूर्त ताकतों को काबू किया जा सकता है।”
  • लेकिन इन दिनों जिससे विवाद खड़ा हुआ है, वह है भारत के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन की हाल की किताब का वह अंश जिसमें उन्होंने लिखा है: “भारत किसी दूसरे परमाणु शक्ति वाले राष्ट्र (एनडब्लूएस) के खिलाफ अपने परमाणु हथियारों का पहला इस्तेमाल कब करेगा, इसको ले कर पूरी तरह स्पष्टता नहीं है। परिस्थितियां ऐसी हैं जिनमें कुछ मामलों में भारत को इसका पहला इस्तेमाल उपयोगी लग सकता है। उदाहरण के तौर पर, ऐसे एनडब्लूएस के खिलाफ जो घोषित कर दे कि वह निश्चित तौर पर अपने हथियारों का उपयोग करेगा और भारत को यह निश्चित तौर पर लग जाए कि विरोधी पक्ष की ओर से इसका प्रयोग निश्चित तौर पर होने वाला है।”
  • इसने कई लोगों को यह तर्क देने के लिए प्रेरित किया है कि यह भारत की परमाणु नीति में एक बड़ा बदलाव है और कुछ परिस्थितियों में नई दिल्ली अपनी एनएफयू नीति को छोड़ सकती है। जब उसे लगे कि इस्लामाबाद उसके खिलाफ हथियारों का इस्तेमाल करने जा रहा है तो वह पहले पाकिस्तान पर हमला कर सकता है। पश्चिम में कई लोग इसे भारत के रवैये में एक महत्वपूर्ण बदलाव के रूप में देखते हैं जो दक्षिण एशिया की रणनीतिक स्थिरता के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है।
  • लेकिन आज तक नई दिल्ली सरकार या प्रधानमंत्री कार्यालय ने कोई संकेत नहीं दिया है कि भारत की परमाणु नीति में कोई बदलाव होने वाला है। बल्कि, नई दिल्ली के लिए ऐसे समय में ऐसा करना बहुत ही अतार्किक होगा जब वह परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल होने के लिए कूटनीतिक रूप से संघर्ष कर रहा हो। इस तरह की कोई भी पहल एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति के रूप में भारत की पहचान को खतरे में डाल सकती है।
  • दूसरी बात यह है कि मेनन इस सरकार का हिस्सा ही नहीं है। उनकी किताब तो कांग्रेस नेतृत्व वाली पिछली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की मनमोहन सिंह सरकार के दौरान के उनके कर्यकाल के बारे में हैं। अगर उनके दावों को माना भी जाए तो इसका मतलब यही होगा कि इस सोच को ले कर अभी हाल-फिलहाल में कोई बदलाव नहीं हुआ है। भारतीय नीति निर्माता, चाहे वे किसी भी विचारधारा के रहे हों, वर्षों से पाकिस्तान की दुस्साहसी विदेश नीति से निपटने में लगे रहे हैं। दरअसल, मेनन की किताब पाकिस्तान को भारत के खिलाफ आतंकवादी हमले करने के लिए परमाणु रक्षा-कवच उपलब्ध होने की बात करती है, जिसकी वजह से उसे लगता है कि भारत बदले की कार्रवाई नहीं करेगा। बात इसी तथ्य के संदर्भ में कही गई जिसे भारत के रवैये को ले कर आए बदलाव के लिहाज से देखा जा रहा है।
  • पाकिस्तान को ले कर ऐसी असहजता और चीन-पाक की बढ़ती करीबी के बावजूद भारत की परमाणु नीति को ले कर बहस अभी शुरू ही हुई है। किसी भी तरह से यह नहीं माना जा सकता कि यह चर्चा ऐसे मुकाम पर पहुंच गई हो जहां यह कहा जाए कि अब इसमें कोई अहम बदलाव होने वाला है। भारत की परमाणु नीति 1999 में तय हुई थी और अब इसकी समीक्षा बेहद जरूरी हो गई है। किसी भी अहम नीति की नियमित रूप से समीक्षा बहुत जरूरी है और भारतीय परमाणु नीति को भी मौजूदा समकालीन चुनौतियों से निपटने के लिए खुद को तैयार करना होगा। लेकिन कोई बहस शुरू हुई है, इसका तुरंत यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि नीति किसी खास ओर जा रही है।

पहले की सरकारों की तरह ही मौजूदा सरकार भी एक गलती जरूर कर रही है। इसने अपनी आधिकारिक नीति को ले कर बोलने की छूट बहुत से लोगों को दे दी है। मोदी सरकार को अपनी परमाणु नीति एक बार फिर से घोषित करनी चाहिए। यह बिल्कुल साफ और स्पष्ट शब्दों में हो और साथ ही इसमें दुश्मनों और दोस्तों दोनों का ही खयाल रखा गया हो। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि यह नीति वाशिंगटन या लंदन से नहीं नई दिल्ली के गर्भ से ही निकलनी चाहिए।

 

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