अवमानना के लिए दंड देने की न्यायालय की शक्ति
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि अवमानना के लिए दंड देने की न्यायालय की शक्ति को किसी भी विधि द्वारा क्षीण नहीं किया जा सकता।
उच्चतम न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 और अनुच्छेद 129 के मध्य विद्यमान अंतर को स्पष्ट किया है।
न्यायालय के अनुसार अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति एक संवैधानिक शक्ति है, जिसे विधायी अधिनियम द्वारा भी क्षीण या शून्य नहीं किया जा सकता है।
हालांकि अनुच्छेद 142(2) के तहत स्वयं (न्यायालय) की किसी भी अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति विधायी अधिनियम द्वारा निर्मित किसी भी कानून के प्रावधानों के अधीन है। परंतु जहां तक अनुच्छेद 129 का संबंध है, उसके संदर्भ में ऐसा कोई विधिक प्रतिबंध नहीं है।
न्यायालय की अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति न्यायिक संस्थाओं की प्रेरित हमलों और अनधिकृत आलोचनाओं से रक्षा करती है। यह न्यायालयों के प्राधिकार को सीमित या कम करने वालों को दंडित करने के लिए एक विधिक तंत्र भी प्रदान करती है।
न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 (Contempt of Courts Act, 1971) इसे सांविधिक समर्थन प्रदान करने के साथ-साथ प्रक्रिया और दंड भी निर्धारित करता है।
यह अधिनियम अवमानना को निम्नलिखित में विभाजित करता है:
- सिविल अवमान का तात्पर्य किसी न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, निदेश, आदेश, रिट या अन्य आदेशिका की जानबूझकर अवज्ञा करना है।
- आपराधिक अवमानना में किसी भी ऐसी बात का (चाहे बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा, या संकेतों द्वारा, या दृश्य रूपणों द्वारा, या अन्यथा) प्रकाशन अथवा किसी भी अन्य ऐसे कार्य का करना शामिल है, जो न्यायालय को कलंकित करता है या अथवा जो उसके प्राधिकार को अवनत करता है अथवा न्यायिक कार्यवाही या न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करता है।
- न्यायालय की अवमानना के लिए दंड में छह माह तक का साधारण कारावास और/या 2,000 रूपये तक का अर्थदंड शामिल है।
स्रोत –द हिन्दू