दल–बदल रोधी कानून में संशोधन की जरूरत नहीं
हाल ही में कानून मंत्री ने राज्य सभा में कहा कि दल-बदल रोधी कानून में संशोधन की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह समय की कसौटी पर खरा उतरा है।
कानून मंत्री ने यह बयान एक प्रश्न के लिखित जवाब में दिया है। प्रश्न में पूछा गया था कि क्या दल-बदल रोधी कानून अपने वर्तमान स्वरूप में दुष्प्रेरित दलबदल को रोकने के लिए पर्याप्त है ?
दल–बदल रोधी कानून से जुड़ी चिंताएं
- दल-बदल रोधी कानून से सामूहिक दलबदल को बढ़ावा मिला है। इससे सदन में सत्ता पक्ष की सदस्य संख्या कम हो जाती है और फिर सरकार गिर जाती है। इस प्रकार, निर्वाचित सरकार को स्थिर रखने में यह कानून अप्रभावी सिद्ध होता है।
- दल-बदल रोधी कानून में ‘विलय’ (merger) शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं है।
- विधायकों/सांसदों ने अपने लिए ‘विलय’ शब्द की व्याख्या दो तिहाई विधायकों/सांसदों के विलय के रूप में की है। उनके अनुसार उनके मूल राजनीतिक दल का विलय आवश्यक नहीं है।
- हालांकि, कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि मूल दल का विलय नहीं होता है, तो भले ही असंतुष्ट विधायकों/सांसदों की संख्या कितनी भी क्यों न हो, वे अयोग्य नहीं ठहराए जाने का दावा नहीं कर सकते।
- दलबदल पर अंतिम निर्णय संसद और विधानमंडल के पीठासीन अधिकारी लेते हैं। हालांकि, उनके निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है (किहोतोहोलोहन बनाम ज़चिल्हू, 1992 मामला)।
- इस कानून में ऐसी किसी समय-सीमा का उल्लेख नहीं किया गया है, जिसके भीतर पीठासीन अधिकारियों को दलबदल विरोधी मामले पर निर्णय लेना होता है।
दल–बदल रोधी कानून
- संसद ने इसे 1985 में दसवीं अनुसूची के रूप में संविधान में जोड़ा। इसका उद्देश्य दल बदलने वाले विधायकों को हतोत्साहित कर सरकारों में स्थिरता लाना था।
- इस कानून के तहत यदि कोई विधायक/सांसद स्वेच्छा से अपने दल की सदस्यता त्याग देता है या पार्टी व्हिप के निर्देश के खिलाफ मतदान करता है या मतदान नहीं करता है, तो सदन से उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है तथा उसे अयोग्य घोषित कर दिया जाता है।
- 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के अनुसार, दलबदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है, बशर्ते कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य विलय के पक्ष में हों।
स्रोत– द हिंदू