अनुच्छेद 142 के तहत किसी दम्पति के तलाक को सीधे मंजूरी
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि वह अनुच्छेद-142 के तहत किसी दम्पति के तलाक को सीधे मंजूरी दे सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि यदि पति-पत्नी का रिश्ता इतना खराब हो चुका है कि अब सुलह होने की संभावना बची ही नहीं है, तब वह हिंदू विवाह अधिनियम (HMA), 1955 के तहत निर्धारित अवधि की प्रतीक्षा किए बिना सीधे तलाक की मंजूरी दे सकता है ।
HMA की धारा 13B (2) के अनुसार, जिला न्यायालय को दम्पति द्वारा तलाक की मांग करने वाली अर्जी दाखिल करने की तारीख से छह माह के बाद और उसी तारीख से 18 महीने पहले कारणों से संतुष्ट होने पर तलाक का आदेश पारित करना होगा ।
हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि पति-पत्नी के बीच सुलह होने की गुंजाइश नहीं बचे रहने के आधार पर तलाक देना ‘अधिकार’ का नहीं बल्कि विवेक का विषय है।
संविधान का अनुच्छेद-142 सर्वोच्च न्यायालय को उन मामलों में पक्षकारों के बीच पूर्ण न्याय करने का अधिकार देता है, जहां कानून या संविधि कई बार कोई उपचार (समाधान) प्रदान नहीं करता है ।
अनुच्छेद-142 के तहत प्रदत्त शक्तियां अपनी प्रकृति में व्यापक हैं। इस कारण सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अलग अलग निर्णयों के तहत इसके दायरे और सीमा को परिभाषित किया है।
इन निर्णयों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:
- प्रेम चंद गर्ग वाद (1962): इस निर्णय में अनुच्छेद-142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों के प्रयोग के लिए कुछ सीमाएं निर्धारित की गई थी।
- यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन बनाम भारत संघ: वर्ष 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में अनुच्छेद-142 के व्यापक दायरे का उल्लेख करते हुए पीड़ितों के लिए मुआवजे का आदेश दिया था ।
- सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ वाद (1998): इस निर्णय के अनुसार, अनुच्छेद-142 के तहत प्रदत्त शक्तियां पूरक के रूप में हैं। इन शक्तियों को मूल कानून को बदलने या उस पर प्रभावी होने के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद-142 की आलोचना
- इस अनुच्छेद के तहत प्रदत्त शक्तियों की व्यापक प्रकृति मनमानी और अस्पष्ट है ।
- “पूर्ण न्याय” शब्दावली की मानक परिभाषा का अभाव है।यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है ।
स्रोत – द हिन्दू