जल्लीकट्टू को अनुमति देने वाले तमिलनाडु सरकार के कानूनों की वैधता को बरकरार रखा

जल्लीकट्टू को अनुमति देने वाले तमिलनाडु सरकार के कानूनों की वैधता को बरकरार रखा

हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में जल्लीकट्टू को अनुमति देने वाले तमिलनाडु सरकार के कानूनों की वैधता को बरकरार रखा।

जल्लीकट्टू को अनुमति देने के लिये तमिलनाडु सरकार ने वर्ष 2017 में पशु क्रूरता रोकथाम (तमिलनाडु संशोधन) अधिनियम और पशु क्रूरता रोकथाम (जल्लीकट्टू का संचालन) नियम पारित किये थे।

जल्लीकट्टू की क़ानूनी लड़ाई

भारत में 1990 के दशक की शुरुआत में पशु अधिकारों के मुद्दों को लेकर कानूनी लड़ाई प्रारंभ हुई।

वर्ष 1991 में पर्यावरण मंत्रालय की एक अधिसूचना द्वारा भालू, बंदर, बाघ, तेंदुआ और कुत्तों के प्रशिक्षण और प्रदर्शनी पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

जल्लीकट्टू सर्वप्रथम वर्ष 2007 में कानूनी जाँच के दायरे में आया, जब ‘भारतीय पशु कल्याण बोर्ड’ और ‘पशु अधिकार समूह’ (पेटा) ने जल्लीकट्टू के साथ-साथ बैलगाड़ी दौड़ के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की।

हालाँकि, तमिलनाडु सरकार ने वर्ष 2009 में एक कानून पारित करके इस प्रतिबंध को हटा दिया।

वर्ष 2011 में केंद्र सरकार ने अधिसूचना जारी करके बैलों को उन जानवरों की सूची में शामिल कर लिया, जिनका प्रशिक्षण तथा प्रदर्शन प्रतिबंधित है।

वर्ष 2014 में उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2011 की अधिसूचना के आधार पर बैलों को वश में करने के खेल पर प्रतिबंध लगा दिया।

जिसके बाद तमिलनाडु सरकार नें पशु क्रूरता रोकथाम (तमिलनाडु संशोधन) अधिनियम 2017 और पशु क्रूरता रोकथाम (जल्लीकट्टू का संचालन) नियम 2017 बनाकर जल्लीकट्टू को फिर से अनुमति प्रदान कर दी।

वर्ष 2018 में, उच्चतम न्यायालय ने जल्लीकट्टू मामले को एक संविधान पीठ के पास भेज दिया।

जल्लीकट्टू

जल्लीकट्टू, तमिलनाडु में लोकप्रिय एक पारंपरिक खेल है।

यह मुख्य रूप से मदुरै, तिरुचिरापल्ली, थेनी, पुदुक्कोट्टई और डिंडीगुल जिलों में लोकप्रिय है जिन्हें जल्लीकट्टू बेल्ट के रूप में भी जाना जाता है।

इसे जनवरी के दूसरे सप्ताह में ‘तमिल फसल उत्सव पोंगल’ के दौरान मनाया जाता है।

जल्लीकट्टू, तमिल शब्द ‘सल्ली कासु’ (सिक्के और कट्टू) से आया है, जिसका अर्थ है- पुरस्कार राशि के रूप में बैल के सींगों से बंधा कपड़ा।

जल्लीकट्टू एक पुरानी परंपरा है। मोहनजोदड़ो में खोजी गई मुहर में बैल को वश में करने का एक प्राचीन संदर्भ मिलता है, जो 2,500 ईसा पूर्व और 1,800 ईसा पूर्व के बीच की है।

इस खेल को ‘एरुथज़ुवल’ या ‘बैल को गले लगाना’ भी कहा जाता था।

तमिल संस्कृति में जल्लीकट्टू का महत्त्व

ऐसे समय में जब ‘पशु प्रजनन’ अक्सर एक कृत्रिम प्रक्रिया होती है, जल्लीकट्टू को किसान समुदाय द्वारा अपने शुद्ध नस्ल के देशी बैलों को संरक्षित करने का एक पारंपरिक तरीका माना जाता है।

संरक्षणवादियों और किसानों का तर्क है कि जल्लीकट्टू उन नर जानवरों की रक्षा करने का एक तरीका है, जिनका उपयोग जुताई में न होने पर केवल माँग के लिये किया जाता है।

जल्लीकट्टू के लिये उपयोग की जाने वाली लोकप्रिय देशी मवेशियों की नस्लों में ‘कंगयम, पुलिकुलम, उम्बालाचेरी, बरुगुर और मलाइमाडू’ शामिल हैं।

स्रोत – द हिन्दू

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