हाल ही में अफ्रीका और भारत ने समृद्ध देशों से जलवायु वित्त के रूप में प्रतिवर्ष 1.3 ट्रिलियन डॉलर की मांग की है ।
समान विचारधारा वाले विकासशील देश (Like Minded Developing Countries: LMDCs) नामक 24 देशों के एक समूह ने वित्त के वर्धित प्रवाह (वर्ष 2030 से न्यूनतम 1.3 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष) की मांग की है। इसे विकसित देशों द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए।
भारत चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, ईरान, बांग्लादेश और अन्य विकासशील देशों के साथ LMDCs समूह का हिस्सा है।
अन्य प्रमुख प्रस्ताव
- इस राशि का कम से कम आधा भाग अनुकूलन आवश्यकताओं के लिए निर्धारित किया जाना चाहिए। साथ ही, यह राशि अनुदान के रूप में 100 बिलियन डॉलर से कम नहीं होनी चाहिए।
- जलवायु वित्त को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए, ताकि यह अन्य प्रकार के मौजूदा वित्तीय प्रवाहों के साथ सम्मिश्रित न हो।
जलवायु वित्त के बारे में:
- यह स्थानीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण को संदर्भित करता है। यह वित्तपोषण शमन और अनुकूलन कार्यों को समर्थन प्रदान करता है। ये कार्य जलवायु परिवर्तन का समाधान करेंगे।
- संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन पर फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC), क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस समझौता, समृद्ध देशों से अल्प संपन्न एवं अधिक सुभेद्य देशों के लिए वित्तीय सहायता की मांग करते हैं।
- ‘साझे किंतु विभेदित उत्तरदायित्व’ के सिद्धांत के आधार पर, विकसित देशों ने वर्ष 2010 में वर्ष 2020 तक प्रति वर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने के लिए सहमति व्यक्तकी थी। इसे वर्ष 2025 तक यथावत बनाये रखना है।
- यद्यपि, उन्हें अभी तक कार्यप्रणाली संबंधी दृष्टिकोण और पारदर्शिता पर चिंताओं के साथ राशि जुटानी है।
स्रोत – द हिंदू