एडवांस मेडिकल डायरेक्टिव (AMD) या लिविंग विल की उपयोगिता पर सवाल
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने एडवांस मेडिकल डायरेक्टिव (AMD) या लिविंग विल की उपयोगिता पर सवाल उठाए हैं।
सुप्रीम कोर्ट, कॉमन कॉज बनाम भारत संघ ( 2018 ) मामले में जारी लिविंग विल संबंधी दिशा-निर्देशों में संशोधन की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई कर रहा है।
सुनवाई के दौरान न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियां की हैं:
AMD को केवल उस स्थिति में लागू किया जा सकता है, जिसमें चिकित्सकों ने रोगी के रोग को टर्मिनली इल घोषित कर दिया है और वह रोगी यह कहने की स्थिति में नहीं है कि उसका इलाज बंद कर दिया जाए।
टर्मिनली इल की स्थिति में रोगी की दो वर्षों या उससे कम अवधि में मृत्यु होने की संभावना रहती है।
AMD या लिविंग विल एक कानूनी दस्तावेज है। यह उन चिकित्सा देखभाल सुविधाओं को निर्धारित करता है, जिन्हें कोई व्यक्ति ऐसे समय में स्वीकार या अस्वीकार करना चाहता है, जब वह अपनी इच्छाओं को बताने में असमर्थ होता है ।
लिविंग विल दिशा-निर्देशों में उपयोगिता का अभाव है, क्योंकि भारत में कोई भी व्यक्ति किसी-न-किसी प्रकार से आक्रामक उपचार (invasive treatment) से इंकार करने और मृत्यु को स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र है
आक्रामक उपचार (invasive treatment) में सुई, ट्यूब आदि के द्वारा इलाज किया जाता है ।
इस मामले में एक प्रासंगिक कानून बनाने के लिए विधायिका के पास कहीं अधिक कौशल और ज्ञान स्रोत मौजूद हैं।
वर्ष 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Passive euthanasia ) की वैधता को बरकरार रखा था। साथ ही, इसी निर्णय में भारत में लिविंग विल के लिए प्रक्रिया भी निर्धारित की थी ।
इच्छामृत्यु, रोगी की पीड़ा को समाप्त करने के लिए उसके जीवन का अंत करने की एक पद्धति है।
इच्छामृत्यु के दो प्रकार हैं- सक्रिय इच्छामृत्यु और निष्क्रिय इच्छामृत्यु ।
सक्रिय इच्छामृत्यु में रोगी को दवा (विषाक्त) देकर उसके जीवन को समाप्त किया जाता है ।
निष्क्रिय इच्छामृत्यु में जानबूझकर रोगी के कृत्रिम जीवन समर्थक उपकरण, जैसे- वेंटिलेटर या फीडिंग ट्यूब को हटाकर उसे मृत्युदान दिया जाता है।
AMD को तीन मामलों में प्रभावी किया जा सकता है ।
- जब कोई व्यक्ति किसी लाइलाज बीमारी से ग्रसित हो,
- जब कोई व्यक्ति लगातार अचेतावस्था (unconscious) में हो,
- जब कोई व्यक्ति किसी टर्मिनली इल की अंतिम अवस्था से पीड़ित हो ।
इच्छामृत्यु से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय / रिपोर्ट
पी. रतिनम वाद (1994): भारतीय दंड संहिता की धारा 309 ( आत्महत्या का प्रयास) को असंवैधानिक करार दिया गया।
ज्ञान कौर वाद (1996): असिस्टेड सुसाइड एवं इच्छामृत्यु, दोनों ही कृत्यों को गैर-कानूनी घोषित किया गया ।
अरुणा शानबाग वाद (2011): सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दी।
निष्क्रिय इच्छामृत्यु पर विधि आयोग की 241वीं रिपोर्ट (2012) ने भी कुछ मामलों में व्यक्तिगत स्वायत्तता और इच्छामृत्यु की आवश्यकता को मान्यता दी है ।
स्रोत – द हिन्दू