अगले दशकों में आर्कटिक क्षेत्र में समुद्री बर्फ के पिघलने की पूरी-पूरी संभावना
एक हालिया अध्ययन के अनुसार पेरिस समझौते के अनुरूप वैश्विक तापमान-वृद्धि को 1.5°C या 2°C तक सीमित कर लेने के बावजूद भी गर्मियों के मौसम में आर्कटिक क्षेत्र की समुद्री बर्फ को पिघलने से नहीं रोका जा सकता है।
इस तरह की गर्मी का पहला मौसम संभवतः 2030 के दशक में हो सकता है। इसके पहले, यह माना जाता था कि विश्व में हो रहे उत्सर्जन के कारण वैश्विक तापमान में 4.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि हो सकती है। इसके कारण 2081-2100 तक आर्कटिक क्षेत्र हिम मुक्त हो जाएगा।
इससे पहले, नासा के एक अध्ययन में यह बताया गया था कि ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप गर्मियों में आर्कटिक की समुद्री बर्फ का विस्तार प्रति दशक 12.6 प्रतिशत की दर से कम हो रहा है।
आर्कटिक सागर की बर्फ का महत्त्व:
- समुद्री बर्फ हल्के रंग की होती है, इस कारण यह तरल जल की तुलना में सूर्य के प्रकाश को अंतरिक्ष में अधिक मात्रा में परावर्तित करती है।
- इस प्रकार ध्रुवीय क्षेत्रों को ठंडा बनाए रखने और पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन को बरकरार रखने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
- समुद्री बर्फ भी ऊपर की ठंडी हवा और सतह के नीचे के अपेक्षाकृत गर्म जल के बीच एक अवरोध बनाकर हवा को ठंडा बनाए रखती है।
- समुद्री बर्फ में होने वाली कमी जैव विविधता को प्रभावित कर सकती है। साथ ही, यह ध्रुवीय भालू और वालरस जैसे स्तनधारियों को भी नुकसान पहुंचा सकती है।
- यह युप’ इक (Yupik) इनुपिया (Iñupiat) और इनुइट (Inuit) जैसी स्वदेशी आबादी की निर्वाह – शिकार आधारित पारंपरिक जीवन शैली को भी प्रभावित कर सकती है।
- हालांकि, बर्फ में आने वाली कमी “वाणिज्यिक और आर्थिक अवसर भी उपलब्ध करा सकती है। इससे आर्कटिक क्षेत्र में पोत परिवहन मार्ग खुलेंगे तथा यहां के प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच में वृद्धि होगी।
स्रोत – द हिन्दू